आरक्षण नीति के प्रति आकर्षण पर लाभर्ती वर्ग की आलोचना
पिछड़ों और दलितों की आलोचना भी जम कर करनी होगी। इसलिए क्योंकि यह लोग और इनके "बुद्धिजीवी" अपना सारा दम आरक्षण नीति के इर्दगिर्द लगा रहे हैं, न कि खुद को - अपने समुदाये को- एक व्यापारिक शक्ति में तब्दील करने में।
यह युग व्यापार का ही युग है। और आरक्षण नीति एक साम्यवाद मानसिकता से प्रवाहित होती है। आरक्षण नीति को समर्थन देने का मतलब है कि आप निजी उद्यम को अभी भी प्रजातन्त्र का मुख्य आर्थिक इंजिन समझने में अल्पबुद्धि हैं। आप अभी भी "लोकसेवा " के जंजाल में फंसे हैं, जो कि हमारे देश मे अथाह भ्रष्टाचार , सामाजिक त्रासदियों, और व्यवसायी कौशल की कमी के असल अभियन्ता वर्ग है।
दलित और पिछड़ा वर्ग वह वर्ग है जिसके पास व्यवसायी कौशल होता है। यह वर्ग हाथों के काम मे धनी है, बनस्पत ब्राह्मणों के जो कि कलम और बुद्धि कार्यों में तेज़ होते है। या की बनिया माड़वाड़ी वर्ग, जो कि हेंकड़ी गिरी से श्रमिक शोषण और कमीशन-खोरी से ही खाता आया है।
विदेशों में उनके देश को उद्योगिक प्रधानता उनके व्यसायिक वर्ग ने दी है। हमारे यहां पहले तो कौशल-कार्य करने वाला वर्ग सामाजिक शोषण का शिकार हुआ। और अब आज़ादी के बाद आरक्षण नीति के माध्यम से खुद को खुद की कुबुद्धी का शिकार बना रहा है, अपनी संतानों को "लोकसेवा" की "पढ़ाई-लिखाई" के लिए प्रेरित करके, बजाए की कौशल विकसित करके वह उद्यम करे और अपने समुदाये की राजनीतिक शक्ति के माध्यम से व्यापार में अपनी पकड़ बनाये।
वास्तव में "पढ़ाई लिखाई" के विकास का इतिहास भी यह है की "पढ़ाई-लिखाई" खुद कार्य-कौशल यानी professional skills को सुधार करने और तीव्र करने के दौरान सामाज में जन्म ले सकी थी। आज भी "पढ़ाई-लिखाई' में समाज और इंसान की तुरन्त आवश्यकता को पूरा करने वाले पाठ्यक्रमों को professional courses केह कर पुकारते हैं।
पिछड़ा और दलित वर्ग आज भी कौशल जानते हुए भी व्यापार का स्वामित्व नही जमा सका है, न अपने कार्य-कौशल को जटिल बना सका है, बल्कि एक श्रमिक बन कर रह जाता है। और इस तरह वह वर्तमान में वापस शोषण का शिकार वाला वर्ग तब्दील होता जा रहा है- इस बार श्रमिक शोषण का शिकार। व्यापारिक वर्ग तो पहले से ही व्यापार में था, और अब अपनी राजनैतिक शक्ति के माध्यम से पब्लिक कॉन्ट्रैक्ट में अपने वर्ग को जमाते हुए वापस अधिकाधिक अमीर होता जा रहा है, जहां और भी बे-रोक-टोक श्रमिक शोषण कर रहा है।
पिछड़ा और दलित वर्ग में निजी उद्यम संबंधित एकाग्रता अभी तक पनप नहीं सकी है। क्योंकि इनका "बुद्धिजीवी" हमेशा इनको जिस राजनैतिक एकता के लिए आह्वाहन करता है, उसका केंद्र होता है आरक्षण नीति, बजाए आर्थिक शक्ति में तब्दील होने के लिए निजी उद्यम।
आरक्षण नीति इसकी विशाल जनसंख्या को श्रमिक शोषण से नहीं बचा सकती है, और न ही हमारे देश और समाज को विज्ञान और तकनीक में अव्वल बना सकती है।
कई सारे भारतीय समझते हैं कि विज्ञान और तकनीक में हमारे देश को अग्रिम बनाने के लिये वैज्ञानिक अनुसंधान और शोध के संस्थान बनवाने होंगे। जबकि विकसित देशों के आर्थिक इतिहास के ज्ञान से यह समझ आता है कि व्यावसायिक कौशल के बाजार आवश्यकताओं में से वैज्ञानिक और उद्योगिक अनुसंधान और शोध खुद प्रवाहित हुआ था, तब जा कर वह देश विज्ञान में अग्रिम हो सके।
यानी हमारे देश मे हमने इतिहास को उल्टा पकड़ रखा है। हम पहले वैज्ञानिक शोध करवाना चाहते हैं, और फिर व्यावसायिक कौशल को अनदेखा करते हुए, सीधे व्यापारिक लाभ प्राप्त करना चाहते है।
जबकि दूसरे देशों में पहले व्यावसायिक कौशल आया, फिर वैज्ञानिक अनुसंधान, अन्वेषण ; और फिर व्यापारिक लाभ।
*हमारे दलित और पिछड़ा वर्ग के चिन्तको को अपनी दृष्टि विश्व आर्थिक इतिहास के प्रति दीर्घ करने की ज़रूरत है।*
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