स्वयंसेवक संघ की बदलती धुन की प्रशंसा

राष्ट्रीय स्वयंसवेवक संघ के हाल के एक काम की प्रशंसा तो करनी ही पड़ेगी।  वह यह कि इन लोगों ने यह बात सबसे तीव्रता से पकड़ ली है कि भारत मे जनसंख्या के अनुपात में कहीं अनेक और विविध विचारधाराएं है। और दूसरा यह कि कोई भी विचारधारा इतनी उत्तम और विकसित नही हो पाई है कि देश की एक बहुमत जनसंख्या को यह प्रेरणाप्रद आभास दे सके।

बाकी अन्य खेमे तो आज तक बचकाने दर्शन पर ही जम चुके है, और आज़ादी के 70 सालों बाद भी बस यहीं तक कि बौद्धिक क्षमता रखते है कि "हर आदमी की अपनी-अपनी विचारधारा होती है, हमें सभी की विचारधारा का सम्मान करना चाहिए।" इस बार-बार दोहराए जाने वाले कथन के आगे सभी पार्टियों की बुद्धि समाप्त हो जाती है।

यह शायद आज भी भारत मे बहोत कम लोग समझते हैं कि राष्ट्र निर्माण के लिए तमाम विचारधाराओं में प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है, जिनमे से वह राष्ट्र निर्माण का सूत्र बन सकने योग्य सर्वोत्तम विचारधारा निकालनी पड़ती है जिस पर चलने के लिए समाज के हर इंसान को प्रेरित किया जा सके, जिसे अधिकतर इंसान सहर्ष स्वीकार करने स्वयं उसका अनुसरण कर सकें। 

शायद इसी समझ से संघ ने संघोष्ठियों का एक दौर आरम्भ किया है, जिसके तहत वह तमाम दलों के नेताओं को आमंत्रित करके उन्हें अपने-अपने विचार प्रस्तुत करने का मंच प्रदान करवा रहे है। यह सब बड़ी बात है। आम जनता में कई सारे लोग आज भी विचारधारा के द्वंद को जैसे किसी पहलवानी अखाड़े की लड़ाई समझते हुए तुच्छ राजनीति के आगे निकल कर सत्य के दर्शन करने की बुद्धि नही रखते हैं। वह दल आज भी बस यही प्रचार करते घूम रहे हैं कि "सिर्फ उनका नेता ही अकेले संघ से लड़ाई कर रहा है"।
इसलिए छोटे दल संघ के इस नए प्रयोग को शायद न तो देख पा रहे हैं , और न ही उसकी प्रशंसा करते हुए खुद को तैयार कर पा रहे हैं।

दूसरी और छिपी बात यह भी है कि संघ इन संघोष्ठी सम्मेलनों के दौर में चुपके से अपनी अभी तक कि चलती आ रही विचारधारा रेखा को बदल भी रहा है, या कहे तो "आत्म सुधार कर रहा है"। और भी बेहतर शब्दों में कहें तो "विचारधारा का विकास कर रहा है।"

आप मोहन भागवत के बदले हुए स्वर को शायद समझ सकते हैं। वह मुस्लिम विरोधी "हिंदुत्व" की छवि को बदलने में लग गया है। संघ अब कांग्रेस के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान के दिग्गज नेताओं की तारीफ करने लग गया है। संघ ने अब राष्ट्र ध्वज को स्वीकार करना सीख लिया है, और शायद 'जन गण मन' को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकृति भी दे ही देगा। संघ आज़ादी के उपरांत समाज को दिशा देने योग्य सबसे बेहतर संस्था के रूप में ढलने के प्रयासों में लगा हुआ है। इसके लिए वह तमाम लोगों की विचारधारों को सुनने समझने और संग्रह करने में कदम उठाता से लग रहा है। शायद किसी तुलनात्मक अध्ययन के बाद सभी विचारधाराओं के मिश्रण से निर्मित किसी अधिक श्रेष्ठ और प्रेरणाप्रद विचारधारा की तलाश कर रहा है, शोध कर रहा है।

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