शोषण करने की विद्या

*शोषण करने की विद्या*

भेदभाव की व्यवस्था की नींव किसी न किसी तथाकथित अच्छे से दिखने वाले कारणों से ही करि जाती है।
भेदभाव के कई प्रकार है। जातिगत, या vvip गत, श्रमिक-मालिक सबंन्ध , इत्यादि।
मगर उन सभी का उदगम एक जैसा ही होता है।

और उन सभी का सार भी एक ही है - आर्थिक आर श्रमिक शोषण।
शोषण - जातीय शोषण, श्रमिक शोषण।

और फौजों में ,नौकरियो में , कार्यालयों में होने वाला यह आचरण ही भेदभाव के उद्गम का वह मूल स्थान है।

फौजो और कार्यालयों में शोषण के विरोध को अक्सर discipline के चोंगे कंबल में लपेट कर दबा दिया जाता है।

सरकारी कार्यालयों में नियमों को बेहद पेंचीदा और दो-मुखी निर्मित करवाया जाता है ताकि कोई भेदभाव का विरोधी न्याय की मांग में जीत न पाए। नियमों को एक गुत्थी में तब्दील होने दिया जाता है -- समय अंतराल में एकत्रित कर करके, पुराने नियमों को मिटाए बिना, ताकि वह बेहद विस्तृत बन कर पेंचीदा बन जाये, और मुश्किल गुत्थी का स्वरूप ले कर आसानी से किसी को समझ मे नही आएं। साथ ही वह दो-मुखी भी बन जाते है जिससे कि यह उच्च पदस्थ अधिकारी की मनमर्ज़ी हो जाये कि वह तय करे कब कौन सा नियम लागू होगा। साथ मे उनके विस्तारित फैलाव के चलते कोई कोई कार्मिक कभी भी खुद आत्मविश्वास के साथ पूर्व घोषणा कर ही नही सकता है कि कब, कौन सा नियम लागू हो जाएगा। नियमो के unpredictble बनाये रखने का यह लाभ मिलता है।

नियमों की गुत्थी रचने बुनने के लिए उनका संग्रहण भी यहां-वहां, अलग अलग फाइलों में करके किया जाता है, जिससे कि किसी एक व्यक्ति को एक ही बार मे सब कुछ समझ में नही आ जाये।

और फिर आम व्यक्ति की नियमों से अज्ञानता से उत्पन्न नासमझी के लिए उन्हें सज़ा और डांट फटकार , अपशब्द, गली गलौज करके और उनके हौसलों को पस्त कर दिया जाता है, उन्हें मूर्ख साबित किया जाता है, उन्हें खुद को विश्वास दिलाया जाता है की वही मानसिक तौर पर पुष्ट नही हैं, और कम विकसित हैं।

और फिर खुद की अधिक तथा श्रेष्ठ योग्यता का ढिंढोरा पीट कर, आरक्षण सुविधा का विरोध और चुपके से उलंघन करके अपनी प्रभुसत्ता को कायम करने के सारे कदम उठाए जाते हैं।

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