सिद्धांतवाद और आदर्शवाद की राजनीति की वापसी

    सिद्धांतवाद और आदर्श वाद की राजनीति में उन विचारों को त्यागना ही पड़ता है जो स्थापित सिद्धांतों से मेल नहीं रक् सकते हैं। अर्थात जन लोकपाल विधेयक चाहने वालों और नहीं चाहने वालों को एक साथ रख कर नहीं चला जा सकता है।
     मगर लगता है की मौकापरस्ती की राजनीती करने वाली मौजूदा सभी राजनीति पार्टियां सिद्धान्तवाद के आरंभिक अध्याय को भी भुला चुकी हैं। और उनहोंने यह तो मन ही मन यूं ही मान लिया है की भारत की जनता सदियों की गुलामी के बाद अंतरात्मा विहीन हो चली है इसलिए उनमें यह काबलियत ही नहीं बची है की सिद्धान्तवाद और आदर्शवाद को वापस स्मरण कर सकें।
     देखिये न कैसे कैसे आरोप लगा रहे हैं विपक्षी दल केजरीवाल पर। " केजरीवाल सभी को साथ ले कर नहीं चल सकता है। उसकी राजनीति इस देश में नहीं चलने वाली है।" । और फिर अंत मेंन स्वयं की अंतरात्मा की ध्वनि होने का सूचक देते हुए यह भी कह देते हैं कि "जनता जाग चुकी है। इसे अब और बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता है"। "सब को साथ लेकर नहीं चल सकते " ...यह अन्त्योष्टि किसके सन्दर्भ में प्रयोग करते है? "सब को साथ नहीं ले रहे" का क्या अर्थ हुआ - यही की केजरीवाल कोई 'खिचड़ी' और 'नाला' बनने को तैयार नहीं हो रहे हैं। भाई सब को साथ लेकर तो 'खिचड़ी' या फिर 'नाला' ही बनते हैं। सिद्धान्तवाद में "खिचड़ी" या "नाला" नहीं चलता है। यहाँ सिद्धांत उद्देश्य की पवित्रता को बनाए रखते हैं, "खिचड़ी" और "नाला" नहीं बना देते हैं।
         तो कहीं यह कोई गुप्त सन्देश तो नहीं हैं जन-संचार माध्यम से देश के तमाम भ्रष्टाचारी और काला धन रखने वालों को कि सब एक साथ हो कर केजरीवाल को हराओ। दल-बदलूओं की गन्दी राजनीति को सिद्धान्तवाद के तर्क बिलकुल भी समझ नहीं आ रहे हैं। इसलिए तर्क न सही, तो कुतर्क सही-- कुछ भी कर के विरोध कर रहे हैं।

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