बनारस और वर्तमान भारतीय संस्कृति की अशुद्धियाँ
बनारस नाम संभवतः वानर अथवा बानर मूल शब्द से आता है , जिस जीव को हम वर्त्तमान में बन्दर कह कर बुलाते हैं। यह शहर बंदरों से भरा हुआ था और उनके शरारतों से गूंजता है , और शायद इसलिए कुछ लोगों ने इस शहर को बनारस नाम दिया था। बन्दर इस शहर के आराध्य देव हनुमान जी का प्रतीक होता है और यहाँ शहर में हनुमान जी का एक प्राचीन संकट मोचन मंदिर स्थापित है। कहते हैं की गोस्वामी तुलसी दास जी ने रामायण का अपना संस्करण इसी मंदिर के प्रांगण में लिखा था जो की हनुमान जी ने उन्हें स्वयं सुनाया था ।(हिन्दू मान्यताओं में हनुमान जी एक अमर देव हैं)। हनुमान जी को भगवान् शंकर का ही एक रूप माना जाता है, और आगे भगवान् शंकर और काशी (बनारस का वैदिक काल का नाम) का रिश्ता तो सभी को पता होगा।
(बनारस से आये देश के बहोत बड़े संगीत शास्त्री, स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब का मानना था की बनारस नाम पान के रस से उत्पन्न हुआ है , क्योंकि यहाँ का पान बहोत प्रसिद्द है |)
मौजूदा बनारस को मैं स्वयं एक पागल युवक के माध्यम से समझने की कोशिश करता हूँ जिसने चंडीगड़ शहर में सन 1995 में घटी एक लड़की रुचिका गिल्होत्रा की आत्म हत्या प्रकरण में घिरे हरयाणा के पूर्व पुलिस प्रमुख के चहरे पर हमले के लिए हिरासत में लिया गया था। उत्कर्ष शर्मा नाम के इस युवक को मानसिक तौर पर अस्थिरता के लिए इलाज के लिए छोड़ दिया गया था। शायद मेरी स्वयं की जानकारी में यह पागलपन का एकमात्र केस था जिसमे की पागल व्यक्ति ने धर्म और न्याय की चाहत में मानसिक अस्थिरता प्राप्त करी हो। साधारणतः पागलपन में अधर्म और अपराध होते हैं, मगर यहाँ पागलपन में न्याय के लिए लड़ाई हुई थी जो की शायद काल्पनिक हिंदी फिल्मो में ही होता है।
यह सोच कर आश्चर्य होता है कि उत्कर्ष ने बनारस से हरयाणा की यात्रा सिर्फ इस प्रतिशोध में करी थी, जबकि वह उस लड़की रुचिका को जनता भी नहीं था। यह कहीं पर पढ़ा ज़रूर है कि एक पूर्णतः आदर्श समाज भी इतना ही अस्थिर विचार है जितना की एक अव्यवस्थित समाज (just world fallacy) , मगर बनारस की, और इस देश की, वर्त्तमान अव्यवस्था में उत्कर्ष की यह चाहत अटपटी नही लगी बल्कि एक नतीजा मालूम दी - प्रकृति का जवाब इस अव्यवस्था के लिए।
धर्म और न्याय का बनारस से बहोत पुराना रिश्ता है। यह शहर आर्य संकृति और सभ्यता का प्राचीन केंद्र है और जो आज तक जीवित है हालाँकि कालान्तर में अशुद्धियों से भर गया है। यहाँ शास्त्रार्थ के प्राचीन रिवाज़ हैं और कहीं पर पढ़ा था की मैथली ब्राह्मणों ने सर्वाधिक बार यह शास्त्रार्थ विजयी किये थे। वैदिक संस्कृति में शास्त्रार्थ की क्रिया धर्मं की खोज और स्थापना का महत्वपूर्ण अंग हैं क्योंकि वैदिक संकृति में सब ही विचार स्वीकृत होते हैं भले ही कुछ विचार परस्पर विरोधाभासी हैं और सह-अस्तित्व नहीं कर सकते हैं। ऐसे में उन विचारों को एक संतुलित कर्म क्रिया के द्वारा ही निभाया जा सकता है। शायद यही बनारस की विचार संस्कृति का मूल गुण हैं - मध्यम मार्ग। भगवान् गौतम बुद्ध, जिन्होंने दुनिया को "मध्यम मार्ग" का दर्शन दिया, ने अपना प्रथम प्रवचन यहाँ बनारस के नज़दीक सारनाथ में ही दिया था।
शास्त्रार्थ एक साधारण वाद-विवाद से भिन्न क्रिया होती है। वाद-विवाद में जहाँ दो पक्ष अपने अपने स्थान को सत्यापित करने का प्रयास करते हैं, शास्त्रार्थ में दो पक्ष मिल कर अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं और समन्वय सत्य का निष्कर्ष देते हैं। प्रकृति में कई ऐसे सत्य हैं जो की अपने दोनों चरम बिंदूओं पर एक समान होते हैं। उदहारण के लिए, एक भ्रष्ट समाज की अस्थिरता और एक परिपूर्ण आदर्श समाज की अस्थिरता - दोनों ही समाज एक समान अस्थिर हैं और नष्ट हो जाते हैं।
बनारस का दर्शनशास्त्र और धर्म से रिश्ता बहोत ही गहरा है। श्रीमती एनी बेसन्ट ने बनारस में थीओसोफिकल सोसाइटी (Theosophical Society) की स्थापना करी थी। ईश्वर और दर्शन(philosophy) के योग से बना यह विषय, Theosophy, हिंदी में 'ब्रह्मविद्या' अथवा 'ब्रह्मज्ञान' कहलाता है। इसमें संप्रत्यय और विस्मयी विषयों में मंथन किया जाता है जो की पदार्थ की दुनिया से परे सिर्फ बौद्धिक चक्षुओं से ही गृहीत करे जा सकते हैं। Theosophical Society का मूल गढ़ अमरीका के न्यू यॉर्क शहर में है और भारतीय केंद्र मद्रास में है।बनारस में इसका उपकेंद्र है।
बाबु भगवान् दास जी बनारस में Theosophical Society के एक प्रमुख संयोजक थे। उन्होंने यहाँ केन्द्रीय हिन्दू विद्यालय की स्थापना करी थी। बाद में पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने इसी विद्यालय को आगे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पुन्र स्थापित किया था।
बाबु भगवान् दास जी को सन 1955 में पंडित नेहरु और इंजिनियर श्री विश्वेवाराया जी के साथ 'भारत रत्न' सम्मान से सुसजित किया गया था।
भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति डाक्टर राधाकृष्णन यहाँ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के अध्यापक थे। दर्शनशास्त्र और Theosophy से बनारस का गहरा सम्बन्ध हैं। डा राधाकृष्णन का उपाधि के समय शोध का विषय पुर्वी और पश्चिमी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन था। डा राधाकृष्णन एक उच्च कोटि के शिक्षक थे और उन्ही के जन्मदिन को आज हम उनकी स्मृति में शिक्षक दिवस में मनाते हैं। तत्कालीन विचारकों, जैसे स्वामी विवेकानंद , और स्वामी परमहंस की तरह डा राधाकृष्णन भी प्रस्तुत हिन्दू मान्यताओं में तर्क और विचारों की अशुद्दियों को साफ़ करने के हिमायती थे |
बनारस और हिन्दू धर्म का सम्बन्ध यहीं ख़त्म नहीं होता है। पश्चिम में हिन्दू धर्म के सबसे बड़े जानकार, बेलजीय्म देश के एक नागरिक श्री कोइनार्द एल्स्ट ने हिन्दू धर्म पर अपनी शोध के लिए सन 1987 से आगे कुछ तीन-एक साल के लिए बनारस को अपना निवास बनाया था।
श्री कोएनार्द एल्स्ट ने भी वर्तमान हिन्दू धर्म की अशुद्धियों पर लेख लिखे थे और वर्तमान शिक्षा प्रणाली की कमियाँ उजागर करी थी की कैसे यहाँ कुछ एक जानकारी, जो समुचित विश्व में उपलब्ध है, को सरकारी व्यवथा द्वारा दबाया जा रहा है। उन्होंने भारत की वर्तमान सभ्यता में समझौते और सुलह से उत्पन्न अशुद्धियों को भी चिन्हित किया था जो की एक भ्रान्ति-पूर्ण तर्क, विचार में एक 'मद्यम मार्ग' मान कर पारित कर दी जाती हैं | यह अशुद्धियाँ भारतीय समाज के भीतर मौजूद है मगर उनको हमारी वर्त्तमान संस्कृति पहले तो चिन्हित नहीं कर पाती है; फिर दबा देती हैं, और अन्त में कोई समाधान नहीं करती है | भारत सरकार ने श्री एल्स्त के लेखों पर अंकुश लगाने के प्रयत्न करे थे हालांकि हिंदूवादी संघटन विश्व हिन्दू परिषद् इनसे खूब प्रभावित था और उसने तुरंत इसे प्रकाशित किया था।
मेरी व्यक्तिगत समझ में बनारस न सिर्फ हिन्दू धर्म का केंद्र है बल्कि मौजूदा पिछड़ेपन का भी केंद्र है। मौजूदा बनारस एक बहोत ही तंग शहर है जहाँ सड़कों पर नाले बहते हैं और नालों में रास्ते बने हुए हैं। गंदे पानी की निकासी के लिए यहाँ नगर निगम की व्यवस्था मौजूद नहीं हैं | यहाँ का परिवहन एकदम अस्त-व्यस्त है और शहर में एक दो ऐसे उपर्गामी मार्ग निर्माणाधीन हैं जो की शायद पिछले एक दशक से बन ही रहे होंगे।
मौजूदा बनारस शहर की सबसे बड़ी समस्या जल और विद्युत् की है। शहर वालों ने इनके जुगाडू समाधान दूंढ रखे हैं मगर जैसा की जुगाड़ का सत्य है एक समाधान दूसरी समस्या उत्पन्न करता है, हर घर में 'बोरिंग पंप' होने से भूमिगत जल स्तर नीचे चले गए हैं। और हर घर में विद्युत जनरेटर लगे होने से शहर डीजल के धुएं से भरा रहता है।
मौजूदा बनारस एक अंधेर नगरी से कम नहीं है। अस्पताल बहोत ही असुविधाजनक हैं और प्रोद्योगिकी में पिछडे से भी पीछे है। शायद नए युग की तकनीक का इन्हें अनुमान ही न हो, यह अस्पताल इतने पुराने हैं। जनसँख्या भार को देखते हुए तो इनकी संख्या भी बहोत कम लगती है।
आर्थिक हालात में बनारस एकदम खराब है। आज भी रिक्शेवाले शहर की सड़कों पर कब्जे में है । यानी यहाँ आज भी इंसान इंसान को ढोता हैं। और शिक्षा और व्यवसायिक कौशल इतना विक्सित नहीं हुआ है की लोग रिक्शा चलाने के बहार कुछ अन्य व्यवसाय में अपनी जीविका दूंढ सकें।
अपराधिक और असामाजिक तत्वों ने शहर की संस्कृति को अपने अनुसार ढाल लिया है। कन्धों को पीछे फ़ेंक कर सीनाजोरी करते युवक यहाँ आम ,सामान्य ,बात व्यवहार है। और फिर ऑटो या रिक्शावाले को रोक कर उससे वसूली कर लेना तो एकदम साधारण बनारसी 'बंदरी' शरारत जिसे की उतना ही पारित, समाजिक स्वीकृत, समझा जाता है जितना की बंदरों का उत्पात।
ऐसे कई व्यवहार और क्रियाएं हैं जिन्हें सामान्य तौर पर हम अपराध मानते होंगे , मगर बनारस ने अपनी 'मध्यम मार्ग' की तर्क-भ्रांतियों में इन्हें सामान्य, या फिर कोई छोटी-मोटी गलती मान रखा है। एकदम 'रान्झाना' फ़िल्म के कुंदन के चरित्र जैसे।
मानो कि यहाँ इंसान की अंतरात्मा जन्म से ही भ्रमित करी जा रही हो।
गंगा नदी का प्रदुषण यहाँ की एक बहोत बड़ी समस्या है। यह सिर्फ एक नदी का प्रदुषण नहीं हैं बल्कि एक प्रतीक के तौर पर यह धर्म में मौजूद अशुद्धियों का भी सूचक है। वर्त्तमान बनारस की साधारण विचारधारा ना धर्म समझ सकती है और न ही विज्ञानं। बल्कि कर्मकांड-धर्म पंथियों ने यहाँ पर विज्ञानं को कर्मकांड-धर्म का ही तत्व बना रखा है| धर्म और विज्ञानं का मानव विवेक पर जो अंतर है उसे यहाँ की वर्तमान की विचित्र 'मध्यम मार्ग' विचारधारा ने कैसे भी करके भर दिया है। मौजूदा बनारस में मानव विवेक अपने पतन की दिशा में जाता हुआ लगता है।
अतीत में बनारस का साहित्य से भी एक गहरा जोड़ था। भारतेंदु हरिश्चन्द्र और मुंशी प्रेमचंद जैसे लेखक बनारस में से ही आये हैं। मगर अभी बनारस सिर्फ अतीत में ही जीता हैं और नया कुछ नहीं दे रहा है।
शिक्षा क्षेत्र में भी बनारस बहोत पिछड़ा हो चुका है। स्कूलों की कमी नहीं है, बल्कि यहाँ स्कूल खोलना एक उद्योग हो चुके हैं। मगर किसी युग में ब्रह्म विद्या की शोध में डूबा यह शहर आज एक जागृत शिक्षा प्रणाली दे सकने में भी असक्षम है।
बहोत संकरी, तंग और अनियंत्रित परिवहन से भरे बनारस को कुछ बुनियादि नवीनीकरण की आवश्यकता है।
(बनारस से आये देश के बहोत बड़े संगीत शास्त्री, स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब का मानना था की बनारस नाम पान के रस से उत्पन्न हुआ है , क्योंकि यहाँ का पान बहोत प्रसिद्द है |)
मौजूदा बनारस को मैं स्वयं एक पागल युवक के माध्यम से समझने की कोशिश करता हूँ जिसने चंडीगड़ शहर में सन 1995 में घटी एक लड़की रुचिका गिल्होत्रा की आत्म हत्या प्रकरण में घिरे हरयाणा के पूर्व पुलिस प्रमुख के चहरे पर हमले के लिए हिरासत में लिया गया था। उत्कर्ष शर्मा नाम के इस युवक को मानसिक तौर पर अस्थिरता के लिए इलाज के लिए छोड़ दिया गया था। शायद मेरी स्वयं की जानकारी में यह पागलपन का एकमात्र केस था जिसमे की पागल व्यक्ति ने धर्म और न्याय की चाहत में मानसिक अस्थिरता प्राप्त करी हो। साधारणतः पागलपन में अधर्म और अपराध होते हैं, मगर यहाँ पागलपन में न्याय के लिए लड़ाई हुई थी जो की शायद काल्पनिक हिंदी फिल्मो में ही होता है।
यह सोच कर आश्चर्य होता है कि उत्कर्ष ने बनारस से हरयाणा की यात्रा सिर्फ इस प्रतिशोध में करी थी, जबकि वह उस लड़की रुचिका को जनता भी नहीं था। यह कहीं पर पढ़ा ज़रूर है कि एक पूर्णतः आदर्श समाज भी इतना ही अस्थिर विचार है जितना की एक अव्यवस्थित समाज (just world fallacy) , मगर बनारस की, और इस देश की, वर्त्तमान अव्यवस्था में उत्कर्ष की यह चाहत अटपटी नही लगी बल्कि एक नतीजा मालूम दी - प्रकृति का जवाब इस अव्यवस्था के लिए।
धर्म और न्याय का बनारस से बहोत पुराना रिश्ता है। यह शहर आर्य संकृति और सभ्यता का प्राचीन केंद्र है और जो आज तक जीवित है हालाँकि कालान्तर में अशुद्धियों से भर गया है। यहाँ शास्त्रार्थ के प्राचीन रिवाज़ हैं और कहीं पर पढ़ा था की मैथली ब्राह्मणों ने सर्वाधिक बार यह शास्त्रार्थ विजयी किये थे। वैदिक संस्कृति में शास्त्रार्थ की क्रिया धर्मं की खोज और स्थापना का महत्वपूर्ण अंग हैं क्योंकि वैदिक संकृति में सब ही विचार स्वीकृत होते हैं भले ही कुछ विचार परस्पर विरोधाभासी हैं और सह-अस्तित्व नहीं कर सकते हैं। ऐसे में उन विचारों को एक संतुलित कर्म क्रिया के द्वारा ही निभाया जा सकता है। शायद यही बनारस की विचार संस्कृति का मूल गुण हैं - मध्यम मार्ग। भगवान् गौतम बुद्ध, जिन्होंने दुनिया को "मध्यम मार्ग" का दर्शन दिया, ने अपना प्रथम प्रवचन यहाँ बनारस के नज़दीक सारनाथ में ही दिया था।
शास्त्रार्थ एक साधारण वाद-विवाद से भिन्न क्रिया होती है। वाद-विवाद में जहाँ दो पक्ष अपने अपने स्थान को सत्यापित करने का प्रयास करते हैं, शास्त्रार्थ में दो पक्ष मिल कर अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं और समन्वय सत्य का निष्कर्ष देते हैं। प्रकृति में कई ऐसे सत्य हैं जो की अपने दोनों चरम बिंदूओं पर एक समान होते हैं। उदहारण के लिए, एक भ्रष्ट समाज की अस्थिरता और एक परिपूर्ण आदर्श समाज की अस्थिरता - दोनों ही समाज एक समान अस्थिर हैं और नष्ट हो जाते हैं।
बनारस का दर्शनशास्त्र और धर्म से रिश्ता बहोत ही गहरा है। श्रीमती एनी बेसन्ट ने बनारस में थीओसोफिकल सोसाइटी (Theosophical Society) की स्थापना करी थी। ईश्वर और दर्शन(philosophy) के योग से बना यह विषय, Theosophy, हिंदी में 'ब्रह्मविद्या' अथवा 'ब्रह्मज्ञान' कहलाता है। इसमें संप्रत्यय और विस्मयी विषयों में मंथन किया जाता है जो की पदार्थ की दुनिया से परे सिर्फ बौद्धिक चक्षुओं से ही गृहीत करे जा सकते हैं। Theosophical Society का मूल गढ़ अमरीका के न्यू यॉर्क शहर में है और भारतीय केंद्र मद्रास में है।बनारस में इसका उपकेंद्र है।
बाबु भगवान् दास जी बनारस में Theosophical Society के एक प्रमुख संयोजक थे। उन्होंने यहाँ केन्द्रीय हिन्दू विद्यालय की स्थापना करी थी। बाद में पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने इसी विद्यालय को आगे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पुन्र स्थापित किया था।
बाबु भगवान् दास जी को सन 1955 में पंडित नेहरु और इंजिनियर श्री विश्वेवाराया जी के साथ 'भारत रत्न' सम्मान से सुसजित किया गया था।
भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति डाक्टर राधाकृष्णन यहाँ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के अध्यापक थे। दर्शनशास्त्र और Theosophy से बनारस का गहरा सम्बन्ध हैं। डा राधाकृष्णन का उपाधि के समय शोध का विषय पुर्वी और पश्चिमी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन था। डा राधाकृष्णन एक उच्च कोटि के शिक्षक थे और उन्ही के जन्मदिन को आज हम उनकी स्मृति में शिक्षक दिवस में मनाते हैं। तत्कालीन विचारकों, जैसे स्वामी विवेकानंद , और स्वामी परमहंस की तरह डा राधाकृष्णन भी प्रस्तुत हिन्दू मान्यताओं में तर्क और विचारों की अशुद्दियों को साफ़ करने के हिमायती थे |
बनारस और हिन्दू धर्म का सम्बन्ध यहीं ख़त्म नहीं होता है। पश्चिम में हिन्दू धर्म के सबसे बड़े जानकार, बेलजीय्म देश के एक नागरिक श्री कोइनार्द एल्स्ट ने हिन्दू धर्म पर अपनी शोध के लिए सन 1987 से आगे कुछ तीन-एक साल के लिए बनारस को अपना निवास बनाया था।
श्री कोएनार्द एल्स्ट ने भी वर्तमान हिन्दू धर्म की अशुद्धियों पर लेख लिखे थे और वर्तमान शिक्षा प्रणाली की कमियाँ उजागर करी थी की कैसे यहाँ कुछ एक जानकारी, जो समुचित विश्व में उपलब्ध है, को सरकारी व्यवथा द्वारा दबाया जा रहा है। उन्होंने भारत की वर्तमान सभ्यता में समझौते और सुलह से उत्पन्न अशुद्धियों को भी चिन्हित किया था जो की एक भ्रान्ति-पूर्ण तर्क, विचार में एक 'मद्यम मार्ग' मान कर पारित कर दी जाती हैं | यह अशुद्धियाँ भारतीय समाज के भीतर मौजूद है मगर उनको हमारी वर्त्तमान संस्कृति पहले तो चिन्हित नहीं कर पाती है; फिर दबा देती हैं, और अन्त में कोई समाधान नहीं करती है | भारत सरकार ने श्री एल्स्त के लेखों पर अंकुश लगाने के प्रयत्न करे थे हालांकि हिंदूवादी संघटन विश्व हिन्दू परिषद् इनसे खूब प्रभावित था और उसने तुरंत इसे प्रकाशित किया था।
मेरी व्यक्तिगत समझ में बनारस न सिर्फ हिन्दू धर्म का केंद्र है बल्कि मौजूदा पिछड़ेपन का भी केंद्र है। मौजूदा बनारस एक बहोत ही तंग शहर है जहाँ सड़कों पर नाले बहते हैं और नालों में रास्ते बने हुए हैं। गंदे पानी की निकासी के लिए यहाँ नगर निगम की व्यवस्था मौजूद नहीं हैं | यहाँ का परिवहन एकदम अस्त-व्यस्त है और शहर में एक दो ऐसे उपर्गामी मार्ग निर्माणाधीन हैं जो की शायद पिछले एक दशक से बन ही रहे होंगे।
मौजूदा बनारस शहर की सबसे बड़ी समस्या जल और विद्युत् की है। शहर वालों ने इनके जुगाडू समाधान दूंढ रखे हैं मगर जैसा की जुगाड़ का सत्य है एक समाधान दूसरी समस्या उत्पन्न करता है, हर घर में 'बोरिंग पंप' होने से भूमिगत जल स्तर नीचे चले गए हैं। और हर घर में विद्युत जनरेटर लगे होने से शहर डीजल के धुएं से भरा रहता है।
मौजूदा बनारस एक अंधेर नगरी से कम नहीं है। अस्पताल बहोत ही असुविधाजनक हैं और प्रोद्योगिकी में पिछडे से भी पीछे है। शायद नए युग की तकनीक का इन्हें अनुमान ही न हो, यह अस्पताल इतने पुराने हैं। जनसँख्या भार को देखते हुए तो इनकी संख्या भी बहोत कम लगती है।
आर्थिक हालात में बनारस एकदम खराब है। आज भी रिक्शेवाले शहर की सड़कों पर कब्जे में है । यानी यहाँ आज भी इंसान इंसान को ढोता हैं। और शिक्षा और व्यवसायिक कौशल इतना विक्सित नहीं हुआ है की लोग रिक्शा चलाने के बहार कुछ अन्य व्यवसाय में अपनी जीविका दूंढ सकें।
अपराधिक और असामाजिक तत्वों ने शहर की संस्कृति को अपने अनुसार ढाल लिया है। कन्धों को पीछे फ़ेंक कर सीनाजोरी करते युवक यहाँ आम ,सामान्य ,बात व्यवहार है। और फिर ऑटो या रिक्शावाले को रोक कर उससे वसूली कर लेना तो एकदम साधारण बनारसी 'बंदरी' शरारत जिसे की उतना ही पारित, समाजिक स्वीकृत, समझा जाता है जितना की बंदरों का उत्पात।
ऐसे कई व्यवहार और क्रियाएं हैं जिन्हें सामान्य तौर पर हम अपराध मानते होंगे , मगर बनारस ने अपनी 'मध्यम मार्ग' की तर्क-भ्रांतियों में इन्हें सामान्य, या फिर कोई छोटी-मोटी गलती मान रखा है। एकदम 'रान्झाना' फ़िल्म के कुंदन के चरित्र जैसे।
मानो कि यहाँ इंसान की अंतरात्मा जन्म से ही भ्रमित करी जा रही हो।
गंगा नदी का प्रदुषण यहाँ की एक बहोत बड़ी समस्या है। यह सिर्फ एक नदी का प्रदुषण नहीं हैं बल्कि एक प्रतीक के तौर पर यह धर्म में मौजूद अशुद्धियों का भी सूचक है। वर्त्तमान बनारस की साधारण विचारधारा ना धर्म समझ सकती है और न ही विज्ञानं। बल्कि कर्मकांड-धर्म पंथियों ने यहाँ पर विज्ञानं को कर्मकांड-धर्म का ही तत्व बना रखा है| धर्म और विज्ञानं का मानव विवेक पर जो अंतर है उसे यहाँ की वर्तमान की विचित्र 'मध्यम मार्ग' विचारधारा ने कैसे भी करके भर दिया है। मौजूदा बनारस में मानव विवेक अपने पतन की दिशा में जाता हुआ लगता है।
अतीत में बनारस का साहित्य से भी एक गहरा जोड़ था। भारतेंदु हरिश्चन्द्र और मुंशी प्रेमचंद जैसे लेखक बनारस में से ही आये हैं। मगर अभी बनारस सिर्फ अतीत में ही जीता हैं और नया कुछ नहीं दे रहा है।
शिक्षा क्षेत्र में भी बनारस बहोत पिछड़ा हो चुका है। स्कूलों की कमी नहीं है, बल्कि यहाँ स्कूल खोलना एक उद्योग हो चुके हैं। मगर किसी युग में ब्रह्म विद्या की शोध में डूबा यह शहर आज एक जागृत शिक्षा प्रणाली दे सकने में भी असक्षम है।
बहोत संकरी, तंग और अनियंत्रित परिवहन से भरे बनारस को कुछ बुनियादि नवीनीकरण की आवश्यकता है।
बनारस के बदलाव पर सुंदर आलेख !!
ReplyDeleteधन्यवाद|
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