अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और भविष्य में भारत के लिए कड़ा रास्ता
क्या यह भारत की विदेशनीति का आश्चर्यचकित करने वाला विरोधाभासी व्यवहार नहीं है कि हम रूस द्वारा यूक्रेन के क्राईमीया क्षेत्र पर अतिक्रमण कर लिए जाने पर पश्चिमी देशों द्वारा लगाए जा रहे रूस पर प्रतिबंधो में उनका साथ नहीं दे रहे हैं?
क्या 21वी शताब्दी में आज भी कोई देश किसी दूसरे देश के क्षेत्र पर ऐसे अतिक्रमण कर सकता है? और क्या भारत ऐसे अतिक्रमण को जायज़ मानता है? तब यदि हमारे किसी भूभाग पर कोई यदि ऐसे अतिक्रमण करे तब क्या समूचे विश्व को हमे हमारे ही द्वारा उत्पन्न तर्कों में उत्तर देने का मौका नहीं मिलेगा?
शायद दुनिया वापस शीत युद्ध के दौरान वाले राजदूतिया समीकरणों पर लौटने लगी है। यह एक अशुभ समाचार होगा।
सुब्रमनियम स्वामी द्वारा लगाए गए कांग्रेस अध्यक्षा पर आरोप भी याद आते हैं। क्या रूस ने भारत से रिश्ते इतना गहरे "खरीद" रखे हैं।
क्या भारत फिर से कम्युनिस्ट ब्लोक से सम्बद्ध हो जायेगा जिसे कभी किसी समय श्री अटल वाजपायी जी की सरकार ने मुक्त कराया था? क्या हम फिर से एक "समाजवादी प्रजातंत्र" बनेंगे जिसका प्राकृतिक अस्तित्व उतना ही सत्यापित है जितना किसी "गरम-गरम बर्फ" का।
यह भी सच है की भारत-रूस मैत्री एक आजमाई हुई दोस्ती है। तत्कालीन "सोवियत संघ" ने ही अंत में भारत का साथ दिया था और आज भी हमारा आधे से अधिक सैन्य उपकरण रूसी ही है। मगर प्रवासी भारतियों ने प्रवास पश्चिमी देशों में किया है। स्वभाव से हम एक अंग्रेजी भाष्य अधिक है रूसी भाषी नहीं। हमे अपने आपसी लड़ाई करने की आज़ादी पसंद है, आपसी "बतकही" की स्वतंत्र अभिव्यक्ति भाति है। हम अपने पूर्व शासक अंग्रेजों को कोस-कोस कर उन्हें पसंद करते हैं क्योंकि हमें अंत में 'लन्दन और कनाडा घूमना' खूब भाता है।
रूस या की पश्चिमी देशों वाली स्वतंत्रता - यह भविष्य में भारत के लिए एक मुश्किल चुनाव होने वाला है।
क्या 21वी शताब्दी में आज भी कोई देश किसी दूसरे देश के क्षेत्र पर ऐसे अतिक्रमण कर सकता है? और क्या भारत ऐसे अतिक्रमण को जायज़ मानता है? तब यदि हमारे किसी भूभाग पर कोई यदि ऐसे अतिक्रमण करे तब क्या समूचे विश्व को हमे हमारे ही द्वारा उत्पन्न तर्कों में उत्तर देने का मौका नहीं मिलेगा?
शायद दुनिया वापस शीत युद्ध के दौरान वाले राजदूतिया समीकरणों पर लौटने लगी है। यह एक अशुभ समाचार होगा।
सुब्रमनियम स्वामी द्वारा लगाए गए कांग्रेस अध्यक्षा पर आरोप भी याद आते हैं। क्या रूस ने भारत से रिश्ते इतना गहरे "खरीद" रखे हैं।
क्या भारत फिर से कम्युनिस्ट ब्लोक से सम्बद्ध हो जायेगा जिसे कभी किसी समय श्री अटल वाजपायी जी की सरकार ने मुक्त कराया था? क्या हम फिर से एक "समाजवादी प्रजातंत्र" बनेंगे जिसका प्राकृतिक अस्तित्व उतना ही सत्यापित है जितना किसी "गरम-गरम बर्फ" का।
यह भी सच है की भारत-रूस मैत्री एक आजमाई हुई दोस्ती है। तत्कालीन "सोवियत संघ" ने ही अंत में भारत का साथ दिया था और आज भी हमारा आधे से अधिक सैन्य उपकरण रूसी ही है। मगर प्रवासी भारतियों ने प्रवास पश्चिमी देशों में किया है। स्वभाव से हम एक अंग्रेजी भाष्य अधिक है रूसी भाषी नहीं। हमे अपने आपसी लड़ाई करने की आज़ादी पसंद है, आपसी "बतकही" की स्वतंत्र अभिव्यक्ति भाति है। हम अपने पूर्व शासक अंग्रेजों को कोस-कोस कर उन्हें पसंद करते हैं क्योंकि हमें अंत में 'लन्दन और कनाडा घूमना' खूब भाता है।
रूस या की पश्चिमी देशों वाली स्वतंत्रता - यह भविष्य में भारत के लिए एक मुश्किल चुनाव होने वाला है।
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