मूक की "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता "
कुछ लोग अक्सर यह विरोध करते हैं की , "क्या जिसको अच्छी लच्छे दार इंग्लिश भाषा नहीं आती उनके कोई विचार नहीं होते ? अगर किसी को अच्छी हिंदी या अच्छी इंलिश नहीं आती तो इसका यह मतलब नहीं है की उसके मन मैं किसी बात के लिए कोई राय नहीं होती ।"
मैं अक्सर यह सोचता हूँ की क्या अपने विचारों को व्यक्त करना इतना ज़रूरी होता है । और यदि हाँ तो क्या विचारों को सिर्फ भाषा के माध्यम से ही व्यक्त किया जा सकता है ?
संविधान ने हम सब को विचारों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी हुयी है । यह अभिव्यक्ति हम किसी भी रूप में कर सकते हैं -- अपने लेखन , चित्रकारी , संगीत , कविता , व्यंग-चित्र , चल-चित्र , -- किसी भी रूप में ।
तब फिर उन लोगों का क्या जो कभी भी कोई विचार अभिव्यक्त नहीं करते मगर विरोध ज़रूर करते हैं की इसका यह मतलब नहीं है की हमारा कोई विचार नहीं है ।
बात सही भी है , कभी कभी तो मौन भी अभिव्यक्ति होती है । और मौन और मूक में अंतर कोई आसन तो है नहीं की यह समझा जा सके की यह व्यक्ति मौन हैं, या फिर की मूक ।
आज समाज मानव अधिकार के आगे निकल कर पशु अधिकारों की भी बात करने लग चुका है । प्रकृति के नाज़ुक संतुलन की समझ ने कुछ मनुष्यों को ही पशु-अधिकार का अधिवक्ता बना दिया है और समाज में सर सम्मति से इसे स्वीकार भी कर लिया है । ऐसे में मूक मनुष्य की "अभिव्यक्ति" को नकारना कोई आसान नहीं है । किसी अन्य के अधिक अभिव्यक्त , विचार-सम्मत होने का उसका विरोध ही उसकी अभिव्यक्ति है की उसको संभवतः कोई विचार स्वीकार्य नहीं है । वैसे में जनसँख्या का अधिक भाग तो इस मूक "अभिव्यक्ति" का ही प्रयोग कर रहा होता है । तब ऐसे में बहुमत का विरोध कैसे किया जा सकता है ।
मगर इस मूक की "अभिव्यक्ति" में जोखिम भी अपने ही किस्म के हैं । मूक के विचार को समझने का कष्ट भी विचार-सम्मत को ही करना पड़ता है , और गलत उच्चारण के केस में उसे गलती करने का इलज़ाम भी वहन करना होता है । मूक हमेशा यह नकार सकता है कि "मैंने तो ऐसे कभी नहीं कहा, आपने खुद ही यह मतलब निकाल लिया ।"
अक्सर कर के कुछ अधिक विचार-सम्मत लोगों के अधिक अभिव्यक्त होने के चलते कुछ अल्प अभिव्यक्त व्यक्तियों के मन की बात दबी की दबी रह जाती है । ऐसे में न्याय क्या होना चाहिए?
प्राकृतिक समझ से तो यह परम आवश्यक है की प्रत्येक नागरिक अपने संविधानिक अधिकरों का प्रयोग करतेहुए स्वयं को अभिव्यक्त कर अन्यथा उस पर होने वाले अन्याय का दोषी वह खुद ही होगा । मूक के अधिकारों की रक्षा उसकी मूक होने की परिधि में ही करी जा सकती है , अभिव्यक्ति -संपन्न की परिधि में नहीं ।
अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करना बहोत ज़रूरी है अन्यथा किसी अन्य को दोष देना ही अन्याय होगा ।
मैं अक्सर यह सोचता हूँ की क्या अपने विचारों को व्यक्त करना इतना ज़रूरी होता है । और यदि हाँ तो क्या विचारों को सिर्फ भाषा के माध्यम से ही व्यक्त किया जा सकता है ?
संविधान ने हम सब को विचारों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी हुयी है । यह अभिव्यक्ति हम किसी भी रूप में कर सकते हैं -- अपने लेखन , चित्रकारी , संगीत , कविता , व्यंग-चित्र , चल-चित्र , -- किसी भी रूप में ।
तब फिर उन लोगों का क्या जो कभी भी कोई विचार अभिव्यक्त नहीं करते मगर विरोध ज़रूर करते हैं की इसका यह मतलब नहीं है की हमारा कोई विचार नहीं है ।
बात सही भी है , कभी कभी तो मौन भी अभिव्यक्ति होती है । और मौन और मूक में अंतर कोई आसन तो है नहीं की यह समझा जा सके की यह व्यक्ति मौन हैं, या फिर की मूक ।
आज समाज मानव अधिकार के आगे निकल कर पशु अधिकारों की भी बात करने लग चुका है । प्रकृति के नाज़ुक संतुलन की समझ ने कुछ मनुष्यों को ही पशु-अधिकार का अधिवक्ता बना दिया है और समाज में सर सम्मति से इसे स्वीकार भी कर लिया है । ऐसे में मूक मनुष्य की "अभिव्यक्ति" को नकारना कोई आसान नहीं है । किसी अन्य के अधिक अभिव्यक्त , विचार-सम्मत होने का उसका विरोध ही उसकी अभिव्यक्ति है की उसको संभवतः कोई विचार स्वीकार्य नहीं है । वैसे में जनसँख्या का अधिक भाग तो इस मूक "अभिव्यक्ति" का ही प्रयोग कर रहा होता है । तब ऐसे में बहुमत का विरोध कैसे किया जा सकता है ।
मगर इस मूक की "अभिव्यक्ति" में जोखिम भी अपने ही किस्म के हैं । मूक के विचार को समझने का कष्ट भी विचार-सम्मत को ही करना पड़ता है , और गलत उच्चारण के केस में उसे गलती करने का इलज़ाम भी वहन करना होता है । मूक हमेशा यह नकार सकता है कि "मैंने तो ऐसे कभी नहीं कहा, आपने खुद ही यह मतलब निकाल लिया ।"
अक्सर कर के कुछ अधिक विचार-सम्मत लोगों के अधिक अभिव्यक्त होने के चलते कुछ अल्प अभिव्यक्त व्यक्तियों के मन की बात दबी की दबी रह जाती है । ऐसे में न्याय क्या होना चाहिए?
प्राकृतिक समझ से तो यह परम आवश्यक है की प्रत्येक नागरिक अपने संविधानिक अधिकरों का प्रयोग करतेहुए स्वयं को अभिव्यक्त कर अन्यथा उस पर होने वाले अन्याय का दोषी वह खुद ही होगा । मूक के अधिकारों की रक्षा उसकी मूक होने की परिधि में ही करी जा सकती है , अभिव्यक्ति -संपन्न की परिधि में नहीं ।
अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करना बहोत ज़रूरी है अन्यथा किसी अन्य को दोष देना ही अन्याय होगा ।
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