आलोचना करना और निंदा करना में भेद

आलोचना करना मनुष्य बुद्धि का आवश्यक स्वरुप है। जहाँ चैतन्य है वहां आलोचना है। और जहाँ श्रद्धा है, वहां केवल स्तुति है।
  श्रद्धा जब चैतन्य से विभाजित हो जाती है तब अंधभक्ति बन जाती है।
मगर आलोचना और निंदा में अंतर है। आलोचना मात्र विश्लेषण है जिसका परम उद्देश्य गुणवत्त से है, सुधार से है। जहाँ सुधार है, वहां शुद्धता है, वहां सौंदर्य है, पावनता है, निश्चलता है ।
सौन्दर्य ,निश्चल,पावन, शुद्ध - जहाँ यह सब है वहां पवित्रता है।
    और जहाँ पवित्रता है ,वही ईश्वर हैं। बल्कि अंग्रेजी में तो कहावत ही है -
Cleanliness is Godliness.

आलोचना को निंदा से भिन्न करना आवश्यक है। निंदा शायद अपमान,तिरस्कार के भाव में होती है। यह घमंड और अहंकार से प्रफ्फुलित होती है। इसमें शक्ति का उपभोग है, शक्ति का जन कल्याण के लिए परित्याग नहीं है।
  आलोचना एक निश्चित दिशा की और प्रेरित करती है। निंदा दिशा हीन है।
आलोचना आदर्शों के अनुरूप होती है। निंदा में स्वयं-भोग ही उद्देश्य है।
आदर्श में से सिद्धांतों और अवन्मय को जन्म होता है। बुद्धि और बौद्धिकता का विकास होता है।
आत्म भोगी का कोई आदर्श नहीं है। वहां स्वयं की संतुष्टि के लिए ही सब कुछ करता है।
   आलोचना प्रेरित करती है कि कठिन आदर्शों और सिद्धांतों के अनुरूप प्रयास किया जाए और असंभव होते हुए भी उसे प्राप्त करते रहने में युग्न रहे।
  निंदा स्मरण कराती है की जो आदर्श असंभव है ,वह कभी भी प्राप्त नहीं किये जा सकते ,इस लिए अपने श्रम और प्रयासों के उद्देश्य को स्वयं की संतुष्टि में दूंढ कर जीवन सुख प्राप्त कर लें।

Comments

Popular posts from this blog

The Orals

Why say "No" to the demand for a Uniform Civil Code in India

About the psychological, cutural and the technological impacts of the music songs