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Showing posts from April, 2016
लॉजिक, लॉजिकल फॉलसि, और चुनावी पार्टियां
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लॉजिक को कंप्यूटर, लॉ, विज्ञानं और गणित के पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाता है। लॉजिक में यह लोग वाकई में जीरो है। लॉजिक प्रयोग करने का फायदा यह होता है कि यह किसी भी धर्म,जात , वर्ण के व्यक्ति को लॉजिक से निकली बात, निष्कर्ष, कारक आसानी से समझ आ जाती है। तो लॉजिक के प्रयोग से आपसी वैमनस्य , भेद भाव जैसे दुर्गुणों को पार लगाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, लॉजिक को सेकुलरिज्म का सूत्रधार मान सकते हैं। मगर यह क्या !! भाजपा वाले तो वैसे ही एंटी-सेकुलरिज्म है !! शायद वह खुद भी मानते है की वह सेकुलरिज्म के साथ साथ लॉजिक को त्याग कर चुके है। लॉजिक की कमी यह होती है कि लॉजिक में गलती होना आसान होता है। और जब कभी लॉजिकल मिस्टेक होती है तब पूरा का पूरा समुदाय वह मिस्टेक कर देता है। लॉजिक की मिस्टेक को लॉजिकल फॉलसि (logical fallacy) कहते हैं। कांग्रेस के लोग लॉजिकल फॉलसि से ग्रस्त थे। इसलिए वह उटपटांग , उल्लूल जुलूल लॉजिक लगा देते थे। सेकुलरिज्म के नाम पर तुष्टिकरण कर रहे थे।
denialism -- प्रमाण नियमावली की logical fallacy
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denialism को गहरायी से समझने के लिए हमें निर्मल आत्मा (good conscience), तर्क (logic) और प्रमाण के नियम (laws of evidence) के पेंचीदा गठजोड़ को समझना होगा। सबसे पहले हमें तर्क और प्रमाण के नियमों की एक प्राकृतिक असक्षमता को चिन्हित करना होगा जिसके लिए हमें अपने निर्मल निश्चल आत्मा का अवलोकन करना होगा। साधारण तर्कक्रिया और प्रमाणनियम के प्रवाह में कुछ घटनाओं को प्रमाणित किया जा सकना करीब करीब असंभव है। भेदभाव और बलात्कार ऐसे अपराधों का उधाहरण है जो की साधारण तर्कक्रिया और प्रमाणनियम के द्वारा सत्यापित किये ही नहीं जा सकते है। इसलिए यहाँ दूसरी विधि प्रयोग करी जाती है। इसमें सर्वप्रथम निश्छल अंतरात्मा को आवाह्न करके घटना अथवा अपराध के अस्तित्व के सत्य को स्वीकृत करके फिर तर्कक्रिया और प्रमाणनियम को निर्मित किया जाता है। यह विधि अन्य अवसर और अपराधों की विधि के विपरीत,एक विशेष विधि है क्योंकि उनमे पहले तर्कक्रिया और प्रमाणनियम को क्रियान्वित करने के उपरान्त निश्छल अंतरात्मा को आवाहन होता है। खाप पंचायत, आरक्षण विरोधी और ऐसे कई सारे समूह आज भी इस गहरी बात को समझ सकने में असफल हो रहे ह
पौराणिक ऋषि मुनि और दलित वर्गों का उनके प्रति दृष्टिकोण
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मनु स्मृति के रचियता , भगवान् मनु की जो भी वास्तविक मंशा रही हो जब उन्होंने समाज में व्यवस्था वर्गों का निर्माण किया हो, मगर आने वाली मानव पीढ़ी ने उनके काव्य को ही तर्क के रूप में प्रस्तुत करके सामाजिक भेदभाव की नीव डाली, जात पात भेदभाव किया, और मानवता के एक विशाल वर्ग को भौतिक मानव सम्मान से वंचित करके पशुओं से भी निम्म जीवन यापन के लिए बाध्य कर दिया था, और जो की सहस्त्र युग तक कायम रहा। सवाल यह है की यदि इसमें भगवान मनु और उनके काव्य की कोई गलती नहीं थी, तब फिर उन लोगों को पहचान करके दण्डित करने की आवश्यकता है जिन्होंने उनकी रचनाओं का कु उच्चारण किया। तुलसी दास के युग तक तो सीधे सीधे तुलसी रामायण में लिए वाक्यांशों से तर्क विक्सित किये गए की "पशु शुद्र और नारी सब ताड़न के अधिकारी", महाभारत में गुरु द्रोण और एकलव्य प्रसंग में से तर्क विक्सित किये गए कि यह लोग चोरी करते है, plagiarism और इसलिए इनके अंगूठे काट देने चाहिए। स्वाभाविक है की अमानवीयता के भुगतभोगी आज इन सभी से घृणा करेंगे-- मनु, मनुस्मृति, तुलसीदास , तुलसी रामायण और गुरु दृणाचार्य । मगर आज भी जो देखने को मि