Rule of law की अपर्याप्त सांस्कृतिक समझ में पनपती भारतिय डेमोक्रेसी

rule of law से उपजे आचरण और प्रोटोकॉल किसी भी उच्च पद व्यक्ति की निष्पक्षता को जनता के सामने प्रमाणित रखते है।
भाजपा और उसके पैतृक संस्थान आरएसएस की मूल समस्या ही rule of law को नहीं समझ सकने की है। आरएसएस पर आरोप उसका नियंत्रण जाति आधारित होने का है। आरएसएस को वह जाति के सदस्य नियंत्रित करते है जो मूलतःभारत के घनघोर जातपात भेदभाव युग के लाभार्थी रहे हैं। सदियों से तोड़ी मोड़ी न्याय व्यवस्था को लागू करता आया यह वर्ग आज निष्पक्षता, rule of law  को नहीं समझ पा रहा है, जो की उसके संस्कृतिक इतिहास के मद्देनज़र स्वाभाविक है।
  rule of law का उद्देश्य arbitrary और discretionary निर्णयों को समाप्त करने का होता है। इसके लिए rule of law या तो कोई सैद्धांतिक नियम (theorised rule) को प्रोत्साहित करता है, या आपसी सहमति से बने अनुबंध या प्रोटोकॉल लाता है।
   किसी निजी कंपनी में प्रधानमंत्री पद के व्यक्ति की तस्वीर को उपयोग न करना, किसी विधान सभा में किसी एक पंथ के धर्मगुरु को आमंत्रित न करना, --यह सब rule of law में आता है। जाहिर है की उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है। भारत में अव्यवस्था है, और आलोचको का मानना है की इसका मूल कारण rule of law की अपर्याप्त सांस्कृतिक समझ है।
    नेहरू और संविधान निर्माता अंदर ही अंदर भारत वासियों की सांस्कृतिक समझ में कमी को जानते थे। इसलिए उन्होंने भारत में प्रतिनिधित्व प्रजातंत्र का एक "स्थानीय" मॉडल पश्चिमी देशों के मॉडल में कुछ फेर बदल करके बना दिया। मगर नतीजे में वह कुछ ऐसा कर बैठे है की भारत में एक अर्ध-पकी डेमोक्रेसी दे गए है। इस संवैधानिक व्यवस्था से कोई भी अच्छा खासा समाज भी आत्म विनाश कर बैठेगा।
   समस्या यह है कि भारतिय राजनीति में दूसरा पक्ष, यानि आरएसएस और भाजपा भी जनहित और rule of law में कोई जयादा समझदार नहीं है, जैसा की हम देख सक रहे हैं।

    तो  सवाल है की अब भारत वासी जाये तो किधर जाये ?

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