राजनीती और भाषाविज्ञान का सम्बन्ध

राजनीति छल और कपट से भरी हुई होती है। राजनीति करने में भाषा का बहोत योगदान होता है। राजनैतिक कुटिलता करने के लिए भाषा के साथ उलट फेर करने में आपको प्रवीण होना चाहिए। सफल राजनीति की बुनियाद कुटिल भाषा के प्रयोग से ही बनती है जो की भाषणों के द्वारा जनता के बीच प्रवाहित करी जाती है।
    अंग्रेजी लेखक जॉर्ज ओस्वेल ने अपना एक सुप्रसिद्ध निबंध, "Politics and the English Language"( राजनीति और अंग्रेजी भाषा) , को शासन शक्ति के आपसी संघर्ष के दौरान हुए छल-कपट तथा भाषाविज्ञान के बीच सम्बन्ध को उजागर करने के लिए ही लिखा था।
    असल में शब्द विचार में 'राजनीति' का अर्थ भी गलत तरीके से जनता के संज्ञान में डाला जा चुका है। हम अपने इर्द-गिर्द जिसे देखते और आभास करते है, "शासन शक्ति के आपसी संघर्ष के दौरान हुए छल-कपट", वह राजनीति नहीं वरन कूट अभ्यास, या कूटनीति(realpolitik), पुकारा जाना चाहिए। राजनीति का शाब्दिक अर्थ होता है ''अच्छा , सुशासन चलाने वाली नीति"। जाहिर है की जनता को छल, कपट और 'उल्लू बना कर' प्राप्त करी गयी शासन शक्ति से आये व्यक्ति उस जनता का भला करने वाले तो नहीं है। वह कूटनीति ही करेंगे, राजनीति नहीं। मगर उल्लू बनाने के सार्थक प्रयास में वह अपने कार्यों को भी "राजनीति" शब्द से पुकारते है।
   तो इस प्रकार कूटनीति और भाषाविज्ञान सम्बन्ध की महत्वता सर्वप्रथम "राजनीति" शब्द से ही आरम्भ होती है।
   कूटनीति करने में एक आवश्यक वस्तु होती है अशिक्षित जनता। इसलिए ऐसा समझ जाता है की जहाँ शिक्षा होगी वहां कूटनीति नहीं करी जा सकेगी। मगर भाषाविज्ञान की गहराईयों से देखें तब समझ में आएगा की कूटनीति से समाज और राष्ट्र की रक्षा करने के लिए आवश्यक वस्तु शिक्षा का प्रसार नहीं वरन अंतरात्मा की जागृति है। ऐसे बहोत सारे देश हैं जहाँ शिक्षा का जनसँख्या में प्रसार बहोत अग्रिम है, मगर इसके बावज़ूद वह कूटनीति के प्रभावों से वह अपने समाज और राष्ट्र की रक्षा नहीं कर पाये हैं।
    भाषाविज्ञान, यानि Linguistics, मानवीयता अध्ययन में उपलब्ध विज्ञान की एक शाखा है जिसमे की हम शब्द (lexicon), उसके चिन्ह(symbol), उसके सन्दर्भ(context), उसके प्रयोग से वाक्य रचना की नियमावली(syntax), और प्रतिचिन्हित अर्थ की सत्यता (truthfulness of the meaning, semantics), और प्रसंग में उपलब्ध अर्थ (pragmatics) , इत्यादि का अध्ययन करते हैं। भाषाविज्ञान(linguistics) का अर्थ साधारण तौर पर स्कूलों में पढ़ाये जाने वाले व्याकरण (grammar) शब्ध से बिल्कुल भिन्न है।
    भाषा का प्रयोग इंसानों में तमाम जीव जंतुओं से बिलकुल विशिष्ट कौशल है। भाषा का सम्बन्ध चैतन्य से है। और चैतन्य ही अंतरात्मा होती है। सिर्फ इंसान ही एक ऐसा जीव है जिसमे सही-और-गलत में भिन्न करने की क्षमता होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य की अपने इस कौशल का प्रयोग अपने सामाजिक सहवास में आवश्यक पड़ता है। तो छल और कपट को अंजाम देने के लिए किसी व्यक्ति को सर्वप्रथम आवश्यकता पड़ेगी इंसान के चैतन्य को निम्म करने की। और चैतन्य को निम्म किया जा सकता है भाषा के भ्रमकारी प्रयोग से। यानि चार पैर और एक सूंड वाले जानवर को 'घोडा' पुकार कर, बदले में चार पैर वाले तेज़ दौड़ने वाले जानवर जो 'हाथी' पुकार कर। जो समाज चैत्यनवान होगा वही यह पकड़ पायेगा की यहाँ शब्द और उसके सूचक अर्थ में हेर-फेर करी गयी है।
     उत्तर भारत में "समाज" शब्द प्रयोग करके कूटनीति करने वाली पार्टियों का समाजवाद या समाज से कोई लेना देना नहीं है। यहाँ 'समाज' शब्द 'जाति' शब्द के पर्याय के प्रयोग हुआ है। और इनकी राजनीति भी जात-पात के इर्द-गिर्द प्रभावी होती है।
   इसी तरह हिन्दू और हिंदुत्व का प्रयोग करने वाली पार्टियों की खुद की समझ धर्म और व्यवहारिक संस्कृति के प्रति एकदम निम्म है , और वह किसी दूसरे समुदाये की प्रति घृणा के आधार पर अपनी कूटनीति करती हैं।
   इसी तरह सेकुलरिज्म के नाम पर कूटनीति करने वाली पार्टी का वास्तविक सेकुलरिज्म से कोई लेना देना नहीं है, और वह वास्तव में किसी समुदाये के तुष्टिकरण को जायज़ करने के लिए सेकुलरिज्म के विचार को प्रयोग करती हैं।
    नकली सेकुलरिज्म का विरोध करने वाली पार्टी को प्रजातंत्र और सेकुलरिज्म के अटूट सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है, और वह सेकुलरिज्म के विरोध करती हुयी आज खुद अप्रजातान्त्रिक नेतृत्व का बोझ उठा रही है।
     प्रजातंत्र की बात करने वाली पार्टी खुद वंशवाद पर टिकी हुयी है।
  
   इन सब शब्द और विरोधाभासी आचरणों के पीछे का मूल कारण है भाषाविज्ञान का विक्सित न होना। भाषा और सटीक शब्द हम इंसानों को प्रेरित करते हैं सही विचार पर मंथन करने को। तो अगर हमारे इर्द-गिर्द कोई घोड़े को हाथी और हाथी को घोडा पुकारेगा तब हम स्वयं ही भ्रमित हो जाने लगेंगे किसी शब्द और उससे सलग्न उसकी प्रकृति के सम्बन्ध के विषय में। यह सही है की शब्द के हेर फेर से उस वस्तु की मूल प्रकृति नहीं बदल जाती है ( a rose will still smell as sweet, nomatter what name you call it), मगर इंसानी चैतन्य में किसी शब्द और उससे प्रतिसूचित प्रकृति के ज्ञान में भ्रम जरूर उत्पन्न किया जा सकता है।
    भाषाविज्ञान का विषय इसी कमी और रोग का निवारण करने में लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
       समाजवाद, यानि Socialism, का विरोध करने वाले खुद "अच्छे दिन" का वादा करके सत्ता सुख भोग रहे हैं। अगर समाजवाद घृणाप्रद विचार है तब फिर कोई उनसे पूछे की वह "अच्छे दिन" को कैसे परिभाषित करेंगे ? बरहाल, समाजवाद का विरोध करते हुए वह खुद जिस प्रकार का भूमि अधिग्रहण अधिनियम लाये है, वह "सोशलिज्म" की परिधि से कितना समीप या दूर है, यह जागृत चैतन्य के लिए एक साधारण सवाल है। आवश्यकता बस यह है की चैत्यन जागृत होना चाहिए की "socialism" मूलतः है क्या ।
      वैसे तो इंसान गलती करते हुए ही बना है मगर इसकी बनावट की असल खासियत इसमें खुद अपनी भूल का सुधार कर सकने की क्षमता है। हम अपनी भूल का सुधार इसी लिए कर पाते हैं क्योंकि हममे एक चैतन्य या अंतरात्मा विराजमान होती है जो की अंदर से ही हमें सही और गलत की जानकारी देती रहती है।
    स्वच्छता(cleanliness, hygiene) से व्यवस्था(orderliness) आता है, और फिर शुद्धता(purity) आती है। शुद्धता से पवित्रता(holiness) आती है और उसमे से दिव्यता(divinity) आती है। इस पूरे क्रम का प्रेरक होता है हमारा चैतन्य। यदि भाषाविज्ञान की अनुपलब्धता के चलते चैतन्य निंद्रा में रह जायेगा तब लाख झाडू चला कर भी स्वच्छता नहीं प्राप्त होने वाली है। इसके सलग्न में हम यह भी कह सकते हैं की बिना शुद्ध शब्द और भाषा के हम एक जागृत चैतन्य को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
    सर्वप्रथम आवश्यक वस्तु है की हम भाषाविज्ञान में विकास करना आरम्भ करें। वही से शायद हमें छल-कपट वाली सामाजिक क्रीड़ा, यानि कूटनीति, से मुक्ति मिल सकती है।

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