साम-दाम-दंड-भेद रखने वाला स्वाभाविक हिन्दू चिंतन और भारत के कानून

हिन्दू धर्म और पश्चिमी सभ्यता के बीच नैसर्गिक मान्यताओं में अंतर होने के वजह से भी 'कानून ' को लागू करने में दिक्कते हैं।
कानून (मूल शब्द- तुर्की भाषा) यानी विधान (हिन्दी/संस्कृत) का उद्देश्य आपसी विवादों को शांतिप्रिय तरीकों से सुलझा लेने का होता है। विधान न सिर्फ दो व्यक्तियों के बीच शांति लाते हैं , बल्कि राजा और प्रजा के बीच भी शांति स्थापित करके राज्य को सुचारू रूप से चलाने में सहायता देते हैं।
कानून के अभाव में लोग आपसी मुद्दे हिंसा से सुलझाते हैं जिससे राज्य में अस्थिरता आती है।
स्थिरता का अभिप्राय आर्थिक उन्नति से है। क्योंकि जब स्थिरता होती है तब आप उद्यम और व्यापारिक करार [(तुर्की, (अनुबंध=हिन्दी, संस्कृति, Contract =इंग्लिश)] के बारे सोच सकते हैं। आपको स्वज्ञान हो जाता है कि जो भी अनुबंध होगा, उसको लागू करने की संभावना निश्चित रहेगी। तो आप अनुबंध को अच्छे से निर्माण करने में ज़ोर देते हैं, न कि उसके अनिश्चित विफलताओं के दौरान होते नुकसान से बचने में।
तो कानून का एक परम उद्देश्य आर्थिक प्रसार है। और कानून यह उद्देश्य पूर्ण करता है व्यापारिक अनुबंधों के दौरान उठते विवादों का शांतिपूर्ण समाधान दे कर। जरूरी नही कानून द्वारा सुलझाये विवादों का दायरा विवाद पारिवारिक हो, या वसीयत , विवाह, उत्तराधिकारी , संपत्ति तक हो। बल्कि इंसानो के बीच आपसी विवादों का सबसे विशाल दायरा तो आर्थिक , व्यापारिक या उद्यमी प्रसंगों से निकलता है। श्रमिक कानून भी इसी आर्थिक प्रसार के उद्देश्य को पूर्ण करते है।
मगर कानून खुद धार्मिक मान्यताओं से निर्मित होता है। धर्म में जैसी जैसी मान्यताएं होती है, वही वहां के लोग पालन करते है, और फिर वही वहां का कानून बन जाता है।
तो कानून के निर्माण और उच्चारण में धर्म का बहोत महत्व है।
अब यहां पर भारत की दिक्कते आरम्भ होती है। क्योंकि हमारे अधिकतर कानून आते तो पश्चिमी सभ्यता के धार्मिक मान्यताओं से हैं। बल्कि उद्योगिक युग में करीब करीब सभी देशों में पश्चिमी सभ्यता के कानून ही चलते हैं, क्योंकि उद्योगिक युग की अगुवाई भी यही देश कर रहे होते हैं, और वह इसलिए क्योंकि अधिकतर अन्वेषण और अविष्कार इन्हीं देशो में होते हैं।
अभी हाल फिलहाल में घटे data privacy के मुद्दे को देखिये। जब इन देशों में data privacy का विवाद उठा और data को व्यक्तिगत संपत्ति की मान्यता ने तूल पकड़ा,  तो कानून को उसी हिसाब से ढाला गया। इधर भारत में आधार कार्ड के नाम पर ठीक उल्टा कार्यक्रम चालू था, जो कि अब पश्चिमी कानूनों के प्रभाव में अब चुपके से वापस लेना शुरू हो गया है।
पश्चिमी सभ्यता मुख्यतः christianity (ईसाई) धर्म पर बसी है। ईसाई धर्म प्राचीन वैदिक धर्म के मुकाबले बहोत नूतन पंथ है, और यह इंसानों के बाद में उट्ठे कू-सांस्कृतिक आचरण को सुधार करते हुए निर्मित हुआ है। जिन सामाजिक या कु-सांस्कृतिक आचरण को ईसाई धर्म ने सुधार किया था वह मुख्यतः मालिक और ग़ुलाम संबधों से वास्ता रखती थी।
यह याद रहे की मालिक-ग़ुलाम संस्कृति सिर्फ पश्चिमी सभ्यता तक सीमित नही थी। बल्कि समूची दुनिया पर थी। हम केह सकते हैं की समूची दुनिया में इंसानी अतीत शोषण , दास प्रथा या ग़ुलामी पर ही आधारित थी। यही पर ईसाई धर्म ने सबसे प्रथम पहल करके सुधार किया और खुद इसी पर यह धर्म अस्तित्व में आया।
जिन सुधार बिंदुओं को ईसाई धर्म अस्तित्व में लाया, वह थे कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से कैसा भी व्यापारिक, पारिवारिक संबंध या काम स्वेच्छा पर ही करवा सकता है। "स्वेच्छा" महत्वपूर्व शब्द है। इसके अभिप्रायों में है कि झूठ, फरेब, दबाव, खोटी नियत, धोखेबाज़ी , जोर आज़माईश, लोभ, रिश्वत, मुद्रा या शारीरिक शक्ति का प्रयोग वर्जित माना जायेगा।
मगर हिन्दू धर्म की स्वाभाविक मान्यताएं आज भी इसके ठीक विपरीत है। हिन्दू धर्म में किसी भी काम को दूसरे से करवाने की "उचित" विधि में साम , दाम , दंड और भेद का प्रयोग स्वीकृत है। यानी हिन्दू विधियों में किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से काम करवाने के लिए पहले को प्रेमपूर्वक समझना है। अन्यथा लोभ (inducement), यानी रिश्वत का प्रयोग। फिर दंड- यानी शारीरिक बाहुबल का प्रयोग और अंत में भेद यानी- रहस्यों का जान कर, विरोधी में आपसी कलह या confuse करके काम करवाना स्वीकृत विधियों में आता है।
कहने का मतलब है की अंग्रेज़ी प्रभावो से निर्मित भारतीय कानून ठीक जिन सांस्कृतिक मान्यताओं के विपरीत विचारों पर बने है, वही स्वाभाविक हिन्दू संस्कृति या मान्यता होती है।
ईसाई धर्म का सार शोषण को रोकने का है। मगर हिन्दू धर्म में शोषण की जगह दया ने ले ली है। शोषण को रोकने का अर्थ सेवको के अधिकारों का अस्तित्व को स्वीकार करने से है।।मगर हिन्दू धर्म में प्रेम और दया को अधिक बल दिया गया है। किसी दास को पूर्ण श्रद्धा से अपने स्वामी का कार्य करना होता है, और श्रद्धा के अभिप्राय में अधिकारों के अस्तित्व की मान्यता को नष्ट करना होता है। तो वह अपने स्वामी से कुछ अधिकार के रूप में मांग नही सकता है।
जबकि ईसाई धर्म, जो की नूतन धर्म है, उसमे साप्ताहिक छुट्टी, काम में विश्राम , सामाजिक देखरेख या प्रजापालन, इत्यादि मुख्य माने गये हैं।
तो भारतीय संस्कृति या हिन्दू संस्कृति बनी ही नही है उन मान्यताओं पर, जिन पर भारत के कानून बने है।
मगर फिर प्रस्तावित सत्य यह भी है कि हिन्दू संस्कृति उद्योगिक युग में एक पिछड़ी संस्कृति, जो की दुनिया के श्रेष्ठ नेतृत्व के लिए नही रह गयी है।
हिन्दू संस्कृति न सिर्फ आधुनिक युग के कानूनों का निर्माण प्रदान करने में असमर्थ है, बल्कि उसके उच्चारण में भी असमर्थ है। ऐसे कई उदाहरण है जिसमे भारत के न्यायालयों में उल्टे-पुल्टे फैसले हुए हैं, मगर जिनकी branding या बोतल पर लगा label उनको 'जनता का परम हितैषी' , 'जनता का रक्षक', 'प्रजातंत्र का रक्षक घोल' करके किया गया है।
हिन्दू धर्म बहु-सांस्कृतिक , बहु-भाषी धर्म शुरू से ही रहा है। कहने का मतलब है की यहां कोई निश्चित परिपाटी या सिद्धांत विकसित नही हुए थे सामाजिक चलन को किसी निश्चित दिशा में प्रसारित और प्रोत्साहित करने के लिए। भारतीय न्यायालयों में भी कानून के उच्चारण के दौरान यही आचरण देखने को मिलता है। न्यायाधीशों के बीच जो विचार तत्कालीन पीठ में अधिक मान्यता वाला निकल आये , वही थोप दिया जाता है कानून बना कर। और यदि किसी दिन उस कानून का प्रकोप कोई उल्टे पुल्टे न्याय को प्रसारित करता है, तब चुपके से शांति-चुप्पी मार कर न्यायालयों में बात को पलट दिया जाता है।
असल में हिन्दू मनायातेओं में कटाक्ष करने को श्रेष्ठ बुद्धि माना गया है, बजाये की विचारो को समझने के। कई किस्से मिलेंगे जिसमे कोई यक्ष प्रश्न करता होगा , और चपलता में दिया उत्तर ही सही उत्तर या श्रेष्ठ उत्तर मान लिया जाता है। एक उदाहरण में दुनिया के चक्कर लगाने का प्रसंग लीजिये। माता-पिता के चक्कर लगाने को दुनिया का चक्कर लगाने के तुल्य मान कर एक श्रेष्ठ उत्तर माना गया है।
कहने का मतलब है की शब्द और विचारों के उच्चारण (अर्थ और अभिप्राय) का तालमेल अभी आत्म के प्रवाह यानी "विश्वास' पर टिका है, बुद्धि के निकलते प्रवाह यानी "तर्क" पर नही। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार कब क्या चीज़ क्या मानी जा सकती , यह कोई स्थायी रूप में कभी बता ही नहीं सकता है। मगर आश्चर्य जनक रूप से इस अस्थिरता में श्रेष्ठता देखी जाती है, मस्तिष्क का हनन नहीं।

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