शिक्षा का अधिकार और राज्य का उत्तरदायित्व
शिक्षा का अधिकार एकमात्र ऐसा अधिकार है जो की एक अधिकार कम है और एक बंधन, एक उत्तरदायित्व ज्यादा है । पढ़ने वाले बालक, छात्र, पर बंधन होता है कि 'पढो', और पढ़ाने वाले अध्यापक पर उत्तरदायित्व होता है की 'पढाओ'| सयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों में यह एक ऐसा मानवाधिकार है जिस पर यह विवाद, यह आरोप रहा है की यह अपने आप में ही मानव स्वतंत्रता की विरुद्ध है। किसी मनुष्य को शिक्षा ग्रहण करनी है या की उसकी चाहत ही अशिक्षित रहने की है - यह भी प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्रता में आता है। मगर मानवाधिकार शास्त्रियों का तर्क रहा है की चूंकि बाकी अन्य मानवाधिकार का संरक्षण खुद प्रत्येक मनुष्य के अपने मानवाधिकारों के आत्मज्ञान पर ही निर्भर करेगा इसलिय प्रत्येक मनुष्य को कम से कम इतनी शिक्षा तो अनिवार्यता से लेनी ही पड़ेगी की उसके मानवाधिकार क्या है। इस तर्क का अर्थ यह है की शिक्षा को अनिवार्य तो करना पड़ेगा मगर सिर्फ इस हद्द तक ही की कोई भी बालक या मनुष्य यह जान कर, सोच-समझ कर चुनाव कर सके की उसके अधिकार क्या-क्या है, और कि उसे शिक्षा लेनी है की नहीं।
इसी विचार के चलते शिक्षा अधिकार अधिनियम में सिर्फ बुनियादी शिक्षा को ही अनिवार्य करा गया है और राज्य की जिम्मेदारी माना गया है।
धारणास्पद शिक्षा पद्धति के विरोधियों ने यह प्रशन अक्सर उठाए हैं कि आखिर शिक्षा है क्या, और आप किस को शिक्षा मानेंगे। क्या कोई व्यक्ति जो अच्छा खिलाडी है, वह शिक्षित नहीं माना जायेगा? क्या वह मनुष्य जाति को कुछ सीखने को नहीं दे सकता? जंगल में रह रहे जनजातियों को देखिये। क्या वह शिक्षित नहीं माने जायेंगे? यदि नहीं, तब वह हज़ारों सालों से जंगल में रह कर जीवित कैसे है? क्या आज हम स्कूली शिक्षा से आये मनुष्यों को किसी वन्य जीव से कुछ भी सीखने को नहीं बचा है ?
यह सारे प्रशन वैध हैं और मानवाधिकार शास्त्रियों ने इन प्रशनों का हमेशा सम्मान किया है। मगर तब प्रशन उठता है कि फिर स्कूल में शिक्षकों और अध्यापकों की उपयोगिता कैसे सिद्ध होगी, कैसे तय होगी? यदि कोई छात्र शिक्षा नहीं ग्रहण कर पा रहा है तब हम इसमें अध्यापक की कमी या गलती मानेंगे। या की यह कोई कमी और गलती हो ही न बल्कि छात्र का मानवाधिकार हो कि उस छात्र को पढ़ना (शिक्षित होना) ही नहीं था ।
ध्यान से पढियेगा- दो अलग-अलग प्रशन है यह।
तब फिर शिक्षा विभाग के अधिकारीयों को कर्तव्य क्या है?
असल में शिक्षा विभाग के अधिकारियों का कर्तव्य यह सुनिश्चित करने का है कि शिक्षा पद्धति ( pedagogy) में कहीं कोई कमी, कोई गलती तो नहीं है।
इन्हीं दो विरोधी विचारों के चलते शिक्षा का कार्य एक मध्यम-मार्ग का जटिल कार्य है। शिक्षक किसी छात्र को कोई विषय, कोई विचार समझने के लिए बंधित नहीं कर सकता है , मगर फिर वह किसी छात्र को पढ़ायेगा कैसे? असल में शिक्षक का मध्यम-मार्ग प्रेरणा और बढ़ावा देने जैसे तरीकों पर ही निर्भर करता है। शिक्षा के कार्य में सजा, शारीरिक यातना का कोई स्थान नहीं है। पढ़ाने की पद्धति में निरंतर सुधार- छात्रों की कमियों को पहचान कर उस पर सुधार करना, या की छात्र में कोई भावनात्मक कमी या मानसिक कमी है जिसकी वजह से वह कुछ विषयों को समझ सकने में प्राकृतिक रूप में सीमित है , यही शिक्षकों के लिए कुछ उपलब्ध तरीके हैं। इस दृष्टि से राज्य के अपने छात्र नागरिकों के लिए दो जिम्मेदारियां बनती है। प्रथम, कि शिक्षा पद्धति पर नज़र रखे की वह सामयिक हैं की नहीं और सही से प्रयोग में हैं कि नहीं। दूसरा, कि मानसिक या भावनात्मक तौर पर अनुपलब्ध छात्रों को सही से पहचाने चिन्हित करे और उनके लिए उसके अनुसार स्कूली शिक्षा या फिर कि वैकल्पिक शिक्षा को प्रदान करवाए।
इस कार्य में शिक्षा विभाग से जुड़े मनोचिकित्सकों और न्यूरो चिकिसकों की उपयोगिता भी होगी। सभी बाल-अध्यापकों को भी मनोव्यवाहरों का साधारण ज्ञान तो होना ही चाहिए कि अनुपलब्ध छात्र को चिन्हित कर सके।
राज्य अपनी शिक्षा नीतियों कि सफलता मात्र इतने से भी तय कर सकता है कि कितने बच्चे किसी प्रकार के शिक्षालय से गुज़रे हैं। - क्योंकि हर छात्र- चाहे वह उपलब्ध हो या चाहे अनुपलब्ध हो- उसका यह चिन्हण तो स्कूल में ही होगा । इस तरह राज्य यह जवाबदेही तो कभी भी, किसी भी पल कर सकता है कि राज्य में कितने बालक हैं कितनों को स्कूल उपलब्ध हुआ और कितनों को स्कूल जाने को नहीं मिला ( और क्यों?) ।
राज्य के पास सभी ब्योरे उपलब्ध होने चाहिए | यदि कोई बालक शिक्षा के लिए शारीरिक तौर पर उपलब्ध नहीं है तब यह प्रशासनिक विभाग की गलती है की बालक स्कूली शिक्षा तक क्यों नहीं पहुच पा रहें है | और यदि बालक भावनात्मक या फिर मानसिक तौर पर अनुपलब्ध हैं तब राज्य के लिए प्रशन है की मनोचिकिसकों को इसका मुआयना करना पड़ेगा | और यदि छात्र स्कूल में अध्यापक से मुटाव के कारण नहीं स्कूल नहीं जाते तब फिर टीचर या फिर की शिक्षा पद्धति में सुधार की आवश्यकता होगी |
इसी विचार के चलते शिक्षा अधिकार अधिनियम में सिर्फ बुनियादी शिक्षा को ही अनिवार्य करा गया है और राज्य की जिम्मेदारी माना गया है।
धारणास्पद शिक्षा पद्धति के विरोधियों ने यह प्रशन अक्सर उठाए हैं कि आखिर शिक्षा है क्या, और आप किस को शिक्षा मानेंगे। क्या कोई व्यक्ति जो अच्छा खिलाडी है, वह शिक्षित नहीं माना जायेगा? क्या वह मनुष्य जाति को कुछ सीखने को नहीं दे सकता? जंगल में रह रहे जनजातियों को देखिये। क्या वह शिक्षित नहीं माने जायेंगे? यदि नहीं, तब वह हज़ारों सालों से जंगल में रह कर जीवित कैसे है? क्या आज हम स्कूली शिक्षा से आये मनुष्यों को किसी वन्य जीव से कुछ भी सीखने को नहीं बचा है ?
यह सारे प्रशन वैध हैं और मानवाधिकार शास्त्रियों ने इन प्रशनों का हमेशा सम्मान किया है। मगर तब प्रशन उठता है कि फिर स्कूल में शिक्षकों और अध्यापकों की उपयोगिता कैसे सिद्ध होगी, कैसे तय होगी? यदि कोई छात्र शिक्षा नहीं ग्रहण कर पा रहा है तब हम इसमें अध्यापक की कमी या गलती मानेंगे। या की यह कोई कमी और गलती हो ही न बल्कि छात्र का मानवाधिकार हो कि उस छात्र को पढ़ना (शिक्षित होना) ही नहीं था ।
ध्यान से पढियेगा- दो अलग-अलग प्रशन है यह।
तब फिर शिक्षा विभाग के अधिकारीयों को कर्तव्य क्या है?
असल में शिक्षा विभाग के अधिकारियों का कर्तव्य यह सुनिश्चित करने का है कि शिक्षा पद्धति ( pedagogy) में कहीं कोई कमी, कोई गलती तो नहीं है।
इन्हीं दो विरोधी विचारों के चलते शिक्षा का कार्य एक मध्यम-मार्ग का जटिल कार्य है। शिक्षक किसी छात्र को कोई विषय, कोई विचार समझने के लिए बंधित नहीं कर सकता है , मगर फिर वह किसी छात्र को पढ़ायेगा कैसे? असल में शिक्षक का मध्यम-मार्ग प्रेरणा और बढ़ावा देने जैसे तरीकों पर ही निर्भर करता है। शिक्षा के कार्य में सजा, शारीरिक यातना का कोई स्थान नहीं है। पढ़ाने की पद्धति में निरंतर सुधार- छात्रों की कमियों को पहचान कर उस पर सुधार करना, या की छात्र में कोई भावनात्मक कमी या मानसिक कमी है जिसकी वजह से वह कुछ विषयों को समझ सकने में प्राकृतिक रूप में सीमित है , यही शिक्षकों के लिए कुछ उपलब्ध तरीके हैं। इस दृष्टि से राज्य के अपने छात्र नागरिकों के लिए दो जिम्मेदारियां बनती है। प्रथम, कि शिक्षा पद्धति पर नज़र रखे की वह सामयिक हैं की नहीं और सही से प्रयोग में हैं कि नहीं। दूसरा, कि मानसिक या भावनात्मक तौर पर अनुपलब्ध छात्रों को सही से पहचाने चिन्हित करे और उनके लिए उसके अनुसार स्कूली शिक्षा या फिर कि वैकल्पिक शिक्षा को प्रदान करवाए।
इस कार्य में शिक्षा विभाग से जुड़े मनोचिकित्सकों और न्यूरो चिकिसकों की उपयोगिता भी होगी। सभी बाल-अध्यापकों को भी मनोव्यवाहरों का साधारण ज्ञान तो होना ही चाहिए कि अनुपलब्ध छात्र को चिन्हित कर सके।
राज्य अपनी शिक्षा नीतियों कि सफलता मात्र इतने से भी तय कर सकता है कि कितने बच्चे किसी प्रकार के शिक्षालय से गुज़रे हैं। - क्योंकि हर छात्र- चाहे वह उपलब्ध हो या चाहे अनुपलब्ध हो- उसका यह चिन्हण तो स्कूल में ही होगा । इस तरह राज्य यह जवाबदेही तो कभी भी, किसी भी पल कर सकता है कि राज्य में कितने बालक हैं कितनों को स्कूल उपलब्ध हुआ और कितनों को स्कूल जाने को नहीं मिला ( और क्यों?) ।
राज्य के पास सभी ब्योरे उपलब्ध होने चाहिए | यदि कोई बालक शिक्षा के लिए शारीरिक तौर पर उपलब्ध नहीं है तब यह प्रशासनिक विभाग की गलती है की बालक स्कूली शिक्षा तक क्यों नहीं पहुच पा रहें है | और यदि बालक भावनात्मक या फिर मानसिक तौर पर अनुपलब्ध हैं तब राज्य के लिए प्रशन है की मनोचिकिसकों को इसका मुआयना करना पड़ेगा | और यदि छात्र स्कूल में अध्यापक से मुटाव के कारण नहीं स्कूल नहीं जाते तब फिर टीचर या फिर की शिक्षा पद्धति में सुधार की आवश्यकता होगी |
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