Posts

Showing posts from January, 2017

what could be the mission assignments of the BJP IT Cell ?

(from fb post dated 21st Jan 2017) अब कोई मैन्युअल तो लिखी नहीं है ,इसलिए खुदी से यह समझना पड़ेगा की बीजेपी ने अपनी IT Cell को क्या क्या जिम्मेदारियां दे रखी है। सबसे प्रथम यही है की ज्यों ही मोदी सरकार की किसी भी मज़बूरी या बेवकूफी से कोई भाजपा और भक्तों की झेंप कराने वाली हरकत हो जाये, त्यों ही बाजार में तस्वीर का रुख पलट कर दिखाने वाले joke और meme सामग्री बाजार में उतार दो जिसे की भक्त लोग whatsapp वगैरह से वितरित और प्रसार करके हालात को अपनी जीत में प्रस्तुत कर सकें । 😎😜😎 BJP IT cell जल्लिकट्टू से प्रतिबन्ध हटाने से हुई झेंप से बचने के लिए पूरे मामले का मुखौटा बदलने वाले meme बाजार में वितरण शुरू कर दिया है। IT Cell अब जोक को PETA और बकरीद पर बकरा काटने के मोदी सरकार के "मुंहतोड़ जवाब" के रूप में दिखाना चाहता है, जबकि किसी समय में जल्लिकट्टू पर प्रतिबन्ध लगवाने में PETA से मेनका गांधी जी आगे आई थी, जो की भाजपा की सदस्या है 😜😎 #जल्लिकट्टू #एक_और_थूक_के_चाट

non-linear logic में भारतिय न्यायालय

भारतिय न्यायालयों की भी यही आलोचना होती रही है। यहाँ कुछ भी साधारण तर्क की परिधि में नहीं होता है। कब किसको क्यों bail (जमानत) दी जाती है, क्यों जल्लितकट्टू पर प्रतिबन्ध लगता है, और बकरीद पर नहीं; और फिर क्यों वह प्रतिबन्ध  हटा लिया जाता है, और पशु संवेदन संस्था PETA ही प्रतिबन्ध की आशंकाओं से घिर जाती है..इन सभी के पीछे कोई एक linear logic तो है ही नहीं। बार कॉउंसिल कहता है की भारत में करीब 45% वकील तो फर्ज़ी है। मेरा अनुमान है की इन हालात को देखते हुए तो शायद यह संख्या कही अधिक है। और जज कितने काबिल है कितने फर्ज़ी है इसका तो बार कॉउंसिल ने कुछ हिसाब ही नहीं दिया है। फर्ज़ी से अभिप्राय सिर्फ यह नहीं की उनकी डिग्री नकली है, phony scholar की भी समस्या है -- यानि ऐसे स्नातक जिनकी उपाधि तो कागज़ी मानकों पर असली है , मगर वह विषय की गहराई में कुछ भी ज्ञान नहीं रखते हैं। सब कुछ उल्टा पुल्टा है भारत में । प्रतिदिन कम से कम एक खबर मिलती है की  कैसे भारत के किसी हिस्से में कोई न्यायलय मनमर्ज़ी के 'तर्कों' पर कोई निर्णय दे रहा है। अभी चाँद दिनों पहले बॉम्बे हाई कोर्ट ने किसी दो दंगे के हत्

समीक्षा : सिर्फ 57 भारतियों की सम्पदा बाकि नीचे से 70% जनसँख्या के बराबर है

कुछ् पुरानी उदघोषणाएं सच साबित होने लग गयी है। कुछ दशकों पहले एक डाक्यूमेंट्री सिनेमा zeitgeist (सजग और उत्सुक लोग youtube पर देखें) में बताया गया था कि कैसे दुनिया की सभी बुराइयों की जड़ इंसान की पैदा करी हुई एक वस्तु , पैसा, की देंन हैं। आगे कुछ और डाक्यूमेंट्री (ताथयिक ) सिनेमा , जैसे the hidden secret of money (part 4) (उत्सुक लोग youtube पर देखें) में बताया गया था की पैसा छापने के तरीके में ही यह पेंच छिपा है कि दुनिया में महंगाई आती ही रहेगी और महंगाई के दबाव में इंसान जीने के सभी कोशिशों में अपराध करता ही रहेगा। पैसा छापने के पीछे के पेंचों का खुलासा करते हुए डाक्यूमेंट्री the hidden secret of money (part 4) बताती है की कैसे दुनिया का सम्पदा असल में कुछ मुठ्ठी भर लोगों की निजी सम्पदा समझी जा सकती है। यह गुप्त , सुमड़ी में रहने वाले लोग कैसे बैंक और सेंट्रल बैंक(जैसे की RBI) से सांठ गाँठ करके जब चाहे पैसा अपनी सुविधा से छाप कर हमेशा अमीर बने रहते हैं। देशों और दुनिया की आर्थिक तंत्र की असल चाबी इन्ही लोगों के पास में है, और इसलिए असल में यही मुठ्ठी भर लोग दुनिया की सभी गरीबी और ब

दो मुँही समस्या है परिवारवाद

परिवार वाद में समस्या का दो तरफ़ा अंश है। इसलिए परिवार की समस्या से निजात किसी एक व्यक्ति के कंवारे होने से उनको वोट दे कर *नहीं ही* मिलने वाला है। परिवार वाद समस्या के दो तरफ़े मुँह को गौर करें :-- 1) अगर किसी अमुक व्यक्ति 'अ' को उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि के प्रभाव में जनमानस स्वीकृति करता है , *तो यह गलत है* क्योंकि *_किसी और योग्य की योग्यता की अनदेखी उसका तिरस्कार होगी_*। 2) अगर किसी अमुक व्यक्ति 'अ' को उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि के प्रभाव में जनमानस *अस्वीकृत* करता है, तो भी यह गलत होगा, क्योंकि यह एक प्रकार का भेदभाव, जात-पात का स्वरुप ही होगा। यानि, बड़ा भेद यह है कि परिवारवाद की समस्या खुद ही *दोहरे चरित्र* की समस्या है। इसलिए इसका निवारण यह तो हो ही *नहीं* सकता की *कंवरों को वोट दो*, या *_उनके परिवार ने देश को 70 साल लूटा, इसलिए अब हमें मौका दो_*। इसका असल समाधान तंत्र सुधार में है। पद को ही सीमित कर दो। उधाहरण के लिए, अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए कोई भी व्यक्ति 2 से अधिक बार निर्वाचित नहीं हो सकता। हालाँकि यह भी कोई पुख्ता समाधान साबित नहीं हुआ है, मगर यह इस

क्यों लबालब है भारतिय सामाजिक चेतना कुतर्क और कूट से

कभी कभी सोचता हूँ की भारतिय जनसँख्या में इतने कुतर्क और कूट (धोखा , भ्रम) आया कैसे । और जवाब में यही उत्तर मिलता है कि सदियों की ग़ुलामी और अथाह गरीबी से हमने खुद का मनोबल बनाये रखने के लिए जो ख़ुशी पाने की नुस्खे लगाये थे , उसमे हमारी संस्कृति ने विवेचना करना बंद कर दिया क्योंकि अत्याधिक विवेचना में दर्द और दुःख मिलता है। बस वही से यह कुतर्क और कूट हमारी सामूहिक चेतना में घर कर गए। संक्षेप में समझे तो हमने अपने दुःखों से बच भागने के लिए जो "हंसते रहो", और "जिंदगी हंस के बिताएंगे" की दौड़ लगायी थी, तो बस वही पर हमने अपने चिंतन मस्तिष्क को पीछे रख छोड़ा था। संस्कृति और समाजशास्त्र के विद्धवान हम भारतियों के लिए कुछ ये ही नजरिया रखते हैं। वह यह समझ भारतीय फिल्मों की सफलता और उनके कथा पट के तत्वों को देख कर समझते हैं। मनमोहन देसाई से लेकर करन जौहर तक जिस प्रकार की फिल्में भारत में "हिट" होती आ रही है वह भारतीय लोगों की न सिर्फ पसंद बल्कि उनकी सामाजिक चेतना को भी छलकाती हैं। किसी दौर में तो मनमोहन देसाई और अमिताभ बच्चन ने नौ लगातार सुपरहिट फिल्में दी थी। और यदि

syncreticism और विशेषण उपनाम - धार्मिक पंथ

हिन्दू प्रथाओं में आपसी विवाद के अंश बहुतायत है।इसे अंग्रेजी भाषा में syncreticism कहते हैं। मेरा मानना है की पश्चिमी विचारकों का हिन्दू पंथ को 'धार्मिक पंथ' कहने का आशय सारा यही नहीं था कि यहाँ कृष्ण और उनके भगवद् गीता में किसी धर्म नाम की वस्तु की शिक्षा दी गयी है। पश्चिमी दार्शनिकों के अनुसार धर्म का अर्थ सिर्फ मर्यादित आचरण, रीत रिवाज़ का पालन, वगैरह तक सिमित नहीं था। उन्होंने सफलता से हिन्दू प्रथाओं में syncreticism को तलाश लिया था, और इसलिए वह अचरज में थे कि आखिर इतने सारे अंतर्कलह प्रथाओं के बावज़ूद यह सब समुदाये एक सह अस्तित्व में कैसे कायम हैं। वह सोच रहे थे की यह समुदाये कैसे तय करते है की कब आपसी समानताओं को विशिष्टता देना है और कब अन्तरकलहि भिन्नताओं को । इसका उत्तर उन्होंने तलाश किया था हिन्दू प्रथाओं में एक विशिष्ट प्रथा में -- निरंतर न्याय करते रहने की विधि में। और जिसको की हिन्दू पंथ में फिर से यही "धर्म" केह कर धर्म के विविध अर्थो में पुकारा जाता है। बस इसीलिए पश्चिमी विचारकों ने हिन्दू भूमि पर चलन में प्रथाओं को विशेषण नाम दे दिया - धार्मिक पंथ।

आज़ादी चाहिए तो सबसे पहले गुलामी के आचरण और मूल्यों को चिन्हित कीजिये

किसको चाहिए आज़ादी और किससे ? भई, इंसान को कैद इंसान की मानसिकता ही रखती है। जब मानसिकता में मनोविकृति बन जाती है।  कैसे आई होंगी यह सब प्रकार की गुलामियां जिनसे आज़ादी के लिए संघर्ष हुये और हो रहे हैं :- भारतियों को अंग्रेजों से आज़ादी चाहिए थी। देश आज़ाद हुआ, आज़ादी मिली; कश्मीर को भारत से आज़ादी चाहिए थी, विशेष प्रावधान अधिनियम बना, आज़ादी मिली ; दलितों को उच्च वर्गों से आज़ादी चाहिए थी, आरक्षण बना, आज़ादी मिली ; स्वतंत्र चिंतन को धार्मिक उन्माद से आज़ादी चाहिए थी, देश सेक्युलर भी बना, आज़ादी मिली। मगर फिर क्यों यह सब गुलामियों के तौर तरीके आज भी देखने सुनने को मिल रहे हैं। क्यों फौजों में ख़राब खाना खिलाया जाता है और शिकायत करने वाले को प्रताड़ित किया जाता है? क्यों फौजदार सिपाहियों से व्यक्तिगत सेवा लेता है? क्यों ऑफिसों में boss is always right कल्चर चलता है ? क्यों प्रशासन में पॉलिटिशियन और ब्यूरोक्रेट की धाक चलती है ? क्यों खेल में कोच की मर्ज़ी चलती है, जी हजूरी और खुशामद चलती है , खिलाड़ियों का कौशल नहीं ? शायद कही कुछ गलती हुई है हमारी शिक्षा नीति में। उसने हमें कुछ गलत पढ़ाया है, कुछ छि

On the propagation of Bhakt mentality in India

How did so much illogical ness spread ? I often ponder that even while Indian culture is knowledge oriented, --the great vedic culture,- and imbibes so much spirituality in it yet how come we have so significant population of the Bhakt mentality people living amongst us. Because, if we are to have the right knowledge and an awakened conscience truly, the arguments of the Bhakt would not have been so much perverse, the language so much unruly and filled with arrogance. The unevenness of one's own logic - how could it escape the self-realised mind, i look at them with amazement. How is it that the marketing and advertising tactics work more than the real substance -- i seek to know. What has the spirituality done to our inner thoughts, or rather- what sort of spirituality it was , if at all there was any , that our political discourse is unable to follow up the Good Conscience . It is as if that the norms of Constitutionality and the Legality can be so casually allowed to look dif

मुन्नार में मुद्रा बनाने की मशीन

केरल के मुन्नार जिले में पहाड़ी, ठण्ड क्षेत्र में चाय के बागान है। वहां आने वाले सैलानियों के लिए टाटा कंपनी ने एक चाय संग्रहालय (tea Museum) बनाया है। इस म्यूजियम के अंदर चाय की औद्योगिक स्तर पर पैदावार से सम्बंधित ऐतिहासिक विशिष्ट वस्तुओं को संरक्षित करके प्रदर्शित किया गया है। इन्हीं वस्तुओं के बीच चाय उद्योग के आरंभिक दौर की एक आवश्यक उपकरण है मुद्रा सिक्का बनाने के उपकरण , Coinage Machine. निकट में प्रदर्शित अभिलेख में इस उपकरण की ऐतिहासिक विशिष्ट का ब्यौरा दर्ज़ है। ब्यौरा बताता है की चाय के पौधों की उपयोगिता तो इंसान बहोत पहले से जानता था, मगर उद्योग स्तर पर पैदावार नहीं होती थी। चाय की फसल चीन और भारत में कम से कम तीन हज़ार सालों पूर्व से हो रही है।अंग्रेज़ सौदागर अपने नाविक जहाजों से भारत केरल के रस्ते ही पहुंचे थे और सबसे प्रथम इन्होंने यहाँ केरल में पाये जाने वाले मसालों का व्यापार शुरू किया था। चाय भी इन्हीं मसालों में आती है। और पश्चिम देशों में बहोत लोकप्रिय होने लगी थी। इसलिए इसकी बाजार मांग पूरी करने के लिए इसकी पैदावार बढ़ाने की आवश्यकता थी। तब औद्योगिक स्तर पर पैदावार के

Professionalism संस्कृति और पर्यटन पर इसके प्रभाव

(..continued from वर्तमान युग की संस्कृति का संक्षेप इतिहास) Professionalism Culture और पर्यटन पर इसके प्रभाव professionalism वाले इस दौर में पर्यटन के उद्देश्य भी अब दूसरे ही हो चले हैं। professionalism जो की अपने अभिप्रायों में श्रम का large scale व्यापार लिए हुई है, इस सभ्यता की एक और महत्वपूर्ण निशानदेही है। यहाँ इंसानो की एक बहोत बड़ी आबादी व्यापारिक वस्तु के उत्पाद दैनिक श्रम पर आश्रित है और इसके वास्ते  "professional" के रूप में तब्दील हो चुकी है। professional का एक दूसरा अभिप्राय है , ऐसे व्यक्ति जो की स्वतंत्र चिंतन ,यानि liberal thoughts , के लिए समय नहीं रखते हैं। आरंभिक दौर में इंसान के भ्रमण पर जाने के उद्देश्य दूसरे हुआ करते थे। भ्रमण के सार को उस युग में बौद्धिक विस्तार की प्रक्रिया से जोड़ कर समझा जाता था। क्योंकि उस युग में चलन यानि यात्रा के संसाधन इतने विक्सित और सहज उपलब्ध नहीं होते थे, इसलिए इंसान यात्राएं बहोत कम करते थे। ऐसे व्यक्तियों के सोच के दायरे संक्षित और स्थानीय (parochial) होते थे ।स्थानीय से अर्थ है वह जो की लघु दर्शन लिए हुए है, व्यापक और

वर्तमान युग की संस्कृति का संक्षेप इतिहास

cultural scientists बताते है की वर्तमान की मानव सभ्यता अतीत की प्रोगऐतिहासिक दौर वाली सभ्यता की भांति किसी नदी की तलहटी पर बसी सभ्यता नहीं हैं। और न ही यह मध्यकालीन दौर वाली किसी समुन्दर किनारे बसने वाली, समुद्रीय जहाज़ों से व्यापार पर टिकी सभ्यता है। बल्कि यह 21वीं शताब्दी की सूचना युग वाली मरुभूमि सभ्यता है, जहाँ के महानगर किसी जलस्रोत- नदी या समुन्दर- से दूर बसने का जोखम ले सकते हैं  क्योंकि इस सभ्यता के मानव अपने अस्तितव के लिए मरुभूमि के एक उत्पाद खनिज तेल पर निर्भर रहते है। सांस्कृतिक इतिहास के शोधकर्ता हमारी वर्तमान कालीन सभ्यता का आरम्भ अक्सर करके 16वि शताब्दी के इंग्लैंड और फ्रांस में घटी औद्योगिक क्रांति (industrial revolution) से मानते हैं। industry शब्द के अभिप्राय को large scale production से जोड़ कर देखते है, जब इंसान ने अपने गुज़र बसर के तरीके को व्यापार और व्यापरिकता से अधिक जोड़ लिया, तथा पुराने युग के तरीके -- किसानी , खेतीहरि और hunting (या शिकार) पर आश्रय करीब करीब समाप्त कर लिया। industrial युग से सांस्कृतिक इतिहास के शोधकर्ताओं के और भी अभिप्राय होते हैं। industry श