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Showing posts from September, 2016

भक्त बनाम लिबेर्टर्डस

भक्त और लिबेर्टार्डों के बीच मोटे मोटे तौर पर दो मुख्य बिन्दूओं पर अंतर है : आरक्षण-विरोधी आचरण (anti-reservationism) और इस्लाम पंथ विरोधी आचरण (anti-Islamism) ।           इस्लाम-विरोधी आचरण का प्रतिसूचक है कश्मीर में धारा 370 का विरोध । भक्तों का कट्टर राष्ट्रवादी-पना भी असल में कश्मीर-प्रेम में लिबेर्टार्डों से अपने को अधिक श्रेष्ट दिखाने का नतीजा है। भक्त कश्मीर-प्रेम के चक्कर में राष्ट्रवाद की उन सीमाओं को भी पार कर रहे हैं जिसको की राष्ट्रवाद के सिद्धांत देने वाले बुद्धिजीवियों ने चेतावनी दी थी , नहीं होनी चाहिए। राष्ट्रवाद कोई प्राकृतिक भावना नहीं है, इंसानों की बनाई हुई है। इसको बनाने वाले बुद्धिजीवियों ने चेतावनी के साथ राष्ट्रवाद बनाया था की आवश्यकता से अधिक होने पर यह भावना फासिज़्म को जन्म दे सकती है, जब राष्ट्रवाद समुदायों का भला करने के स्थान पर माफियाओं के कब्जे में जा कर भोग-भूमि का इलाका सरक्षित करने के लिए प्रयोग होने लगेगा। इतिहास के पन्नों में देखें तो दिख भी जायेगा की फासिज़्म मुख्यतः इटली में जन्मा था, जहाँ की माफिया का भी जन्म हुआ है। माफिया का अभिप्राय है उद्योगपत

भक्तों के आआपा में गड़बड़ी दिखाने के पीछे तर्क क्या है ?

कमल भाई, भक्त विचारधारा का कहना है कि भ्रष्टाचार का विरोध वही करे जिसने खुद कोई पाप न किया है। जैसे की प्रभु येसु ने एक कुलटा स्त्री की जन आक्रोश से जीवन रक्षा के लिए तर्क दिया था कि पहला पत्थर वही मरेगा जिसने खुद आजीवन कोई पाप नहीं किया हो।    तो बस, इसी वाली भक्त विचारधारा से भक्तों की बात निकल रही है कि यदि भाजपा करे तो कोई दिक्कत नहीं, मगर यदि आआपा में वह हो जाये तब इसका अर्थ है की आआपा पाखंडी है, खुद पाप करती है और भ्रष्टाचार का जो विरोध करती है वह असल में पाखण्ड है।   भक्त की मंद बुद्धि आरएसएस की देन है। यह विचारधारा भ्रमो से लबोलब है। इस तर्क के अनुसार दुनिया पर सिर्फ पाप का ही राज होना चाहिए, क्योंकि पूर्णतः स्वच्छ, श्वेत मनुष्य तो भगवान ने कोई बनाया ही नहीं है। इंसान दुर्गुणों से भरा ही होता है, और भक्तों का कहना है की इसी नाते किसी भी नागरिक को प्रशासन से निश्छलता ,पारदर्शिता, भ्रष्टाचार से निवारण , जैसी मांग रखनी ही नहीं चाहिए। जैसा की आप कहते हो, भक्त तामस चरित के लोग है, वह धरती पर अंधकार का राजपाठ ला कर ही रहेंगे। भक्तों की विचारधारा के अनुसार ---अँधेरा कायम रहे !

Mercantile कृष्णा और Martial कृष्णा

कृष्ण हिंदुओं के सर्वप्रिय पूजनीय ईश्वर हैं । हालाँकि कृष्ण के प्रति आस्था रखने वालों की विशाल जनसँख्या है, मगर मेरे देखने भर में यह समझ आया है की इस विशाल जनसँख्या में सभी व्यक्तियों की कृष्ण आस्था के लिए एकाकी तर्क रेखा एक नहीं है।     कृष्ण का चरित्र चंचल, बहुमुखी और शक्ति सम्पन्न है। इसलिए उनके भक्त उन्हें अपने अपने दृष्टिकोण से , अपने कारणों से पूजनीय मानते हैं। जैसा की मैं समझ पा रहा हूँ, - 1) अधिकांश वैश्य समाज कृष्ण को वैश्विक सफलता के कारणों से अर्चना करते है। कृष्ण चरित्र इंसान को कई सारे सामाजिक बंधनों से मुक्त करवाता है। रासलीला से लेकर द्रौपदी चीरहरण , और फिर अपने ही कुल के वृद्धों का संहार करना, श्री कृष्ण चरित्र के कुछ ऐसे पक्ष है जो वैश्य (Mercantile, the mercators) समाज को करीब करीब निरपराध होने का चैतन्य प्रदान करता है, जो की corporate wars के दौरान अपने विरोधी की प्रति सर्वाधिक अनैतिक कार्यवाही करने में भी अपराध बोध से मुक्ति दिल देता है। कृष्ण चरित्र कुछ ऐसा समझा जाता है कि मानो सही-गलत यानि अंतरात्मा की ध्वनि तो बस बाधाएं है सफलता और युग विजय के मार्ग में।    2

Rule of law की अपर्याप्त सांस्कृतिक समझ में पनपती भारतिय डेमोक्रेसी

rule of law से उपजे आचरण और प्रोटोकॉल किसी भी उच्च पद व्यक्ति की निष्पक्षता को जनता के सामने प्रमाणित रखते है। भाजपा और उसके पैतृक संस्थान आरएसएस की मूल समस्या ही rule of law को नहीं समझ सकने की है। आरएसएस पर आरोप उसका नियंत्रण जाति आधारित होने का है। आरएसएस को वह जाति के सदस्य नियंत्रित करते है जो मूलतःभारत के घनघोर जातपात भेदभाव युग के लाभार्थी रहे हैं। सदियों से तोड़ी मोड़ी न्याय व्यवस्था को लागू करता आया यह वर्ग आज निष्पक्षता, rule of law  को नहीं समझ पा रहा है, जो की उसके संस्कृतिक इतिहास के मद्देनज़र स्वाभाविक है।   rule of law का उद्देश्य arbitrary और discretionary निर्णयों को समाप्त करने का होता है। इसके लिए rule of law या तो कोई सैद्धांतिक नियम (theorised rule) को प्रोत्साहित करता है, या आपसी सहमति से बने अनुबंध या प्रोटोकॉल लाता है।    किसी निजी कंपनी में प्रधानमंत्री पद के व्यक्ति की तस्वीर को उपयोग न करना, किसी विधान सभा में किसी एक पंथ के धर्मगुरु को आमंत्रित न करना, --यह सब rule of law में आता है। जाहिर है की उन्हें यह समझ नहीं आ रहा है। भारत में अव्यवस्था है, और आलोचको क

दशरथ मांझी हमारे संविधान की फसल है, हमें एक विकृत सबक सीखने का नायक और नमूना ।

संविधान के निर्माताओं की मानसिकता का एक विक्षिप्त पहलू तो स्पष्ट है।  संविधान निर्माता भारत को प्रजातंत्र तो बनाना चाहते थे मगर उन्हें भारतियों की मानसिक और बौद्धिक योग्यता पर भरोसा नहीं था । शायद इसलिये की अभी अभी हज़ारों सालों की गुलामी से निकले समाज में शायद उन्हें शक था की सामाजिक चेतना की कमी होगी । अपनी मानसिकता में छिपे इस बिंदु के चलते संविधान निर्माताओं ने भारत में एक अर्ध-पकी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था की नींव डाल दी । उन्होंने भारत में किसी असली प्रजातंत्र की भांति शक्ति संतुलन के पक्ष से जनता और प्रशासन में शक्ति संतुलन नहीं बसाया। संविधान निर्माताओं ने जनता को प्रशासन के बनस्पत परिपूर्ण सशक्त नहीं बनाया है। निर्माताओं  द्वारा संविधान काव्य में से ठीक वह पेंच-कील निकाल कर भारत का प्रजातंत्र बसाया गया है जिसमे जनता के शक्ति नष्ट हो गयी है । यहाँ शक्ति संतुलन के सिद्धांत को न अपना कर शक्ति नियंत्रण के सिद्धांत को अधिक बल दिया गया है । पांच साल में एक बार, वह भी single bullet वोट की व्यवस्था। इस पद्धति से जनता को यही समाज और प्रशासन मिलाने वाला था। अगर किसी प्रशासनिक नेतृत्व के