इंटरनेट में digital equality के नाम पर चल रहा यह बदलाव है क्या ?

अमीरी गरीबी को अधिकांशतः हम लोग एक सामाजिक भेदभाव के रूप में ही पहचानते है जो की धन सामर्थ्य के अंतर पर प्रसारित होता है। मगर व्यापारिक और औद्योगिक दृष्टि से यह भेदभाव कई सारे धनाढ्य लाभ के रास्ते के पत्थरों को साफ़ करने का समाधान भी समझा जा सकता है।
    हमारे देश में अभी कुछ वर्ष पहले 2G और 3G स्पेक्ट्रम घोटाला हुआ था । क्या आपने कभी सोचा है की 2G तकनीक के आने के चंद वर्षों बाद ही 3G तकनीक का इज़ाद हो जाये तब फिर 2G तकनीक का व्यापर करने वाले उद्योगों का क्या होगा ? मंत्री जी ने गरीबों के नाम पर 2G और 3G का लाइसेंस सस्ते में नीलम कर दिया था, बदले में रिश्वत ले कर। अब आजकल जो 4G तकनीक के बाजार में आने की तैयारी है तब फिर 2G और 3G तकनीक के उद्योगों वाली कंपनियों का क्या होगा? ख़ास तौर पर उनका जिन्होंने शायद 2G और 3G के लाइसेंस को करोड़ों रुपये की कीमत और रिश्वत, दोनों, देकर हासिल किया होगा ??
    digital दुनिया की यह समस्या इनसे जुड़े उद्योग और उद्योगपतियों की भी है, जो की प्रत्येक मोबाइल फ़ोन प्रेमी की समस्या है--- "हर नया मॉडल बस कुछ ही महीनों और सालों में पुराना हो जाता है"। कोई बिज़नस करे, तो कैसे करे ? जो दुकान खोलो, वह बस कुछ ही महीनों और सालों में पुरानी हो कर धंधा बंद करने की नौबत पर आ जाती है।
    यहाँ इसका समाधान है की अमीरी-गरीबी का अंतर बना दो। हाँ, इससे समाज को नुकसान होगा, मगर उद्योग और बिज़नस को फायदा मिलेगा।
   धर्मशास्त्र कहते है की ज्ञान को चोरी नहीं किया जा सकता है। ज्ञान इंसान का सच्चा साथी, सच्चा मित्र होता है। मगर व्यापारिक दुनिया में ज्ञान का यह दृष्टिकोण सही नहीं है। यदि ज्ञान वाकई में चोरी नहीं किया जा सकता है तब फिर piracy और intellectual property जैसे शब्द और कानून क्यों बनाते ? यह आवश्यक नहीं है की piracy की रोकथाम के लिए नयी अभेद तकनीक की खोज ही एकमात्र रास्ता हो। व्यापारिक और उद्योगिक दृष्टि से एक दूसरा इलाज़ भी है। वह यह की piracy पीड़ित को कैसे भी करके उसके उत्पाद की सही किमात मिल जाये , बस। यहाँ यह अमीरी-गरीबी का सामाजिक अंतर एक रास्ता दिखता है। जैसे armani ब्रांड के जैसा कोट पेंट तो कई सारे दूसरे दर्ज़ी भी सील लेते हैं, मगर खरीदने वाले लोग वास्तव में कीमत अदा करते है ब्रांड की, न कि उत्पाद की, तब फिर इंटरनेट की दुनिया में भी इन निरंतर नयी आती उच्च तकनीकों की ब्रांड कीमत को विक्सित करने से पुराने पन की समस्या का निवारण मिल सकता है।
  यानि, यदि 4G तकनीक के आने से 3G पुरानी भी होती है तो फिर आरंभिक काल में 4G की कीमत को 3G से कही अधिक रखो। इसके लिए आवश्यक है की दाम नियंत्रक संस्थान जैसे की TRAI इत्यादि से इन कीमतों को स्वतंत्र करवा दो। मगर TRAI तो कीमतों को उपभोक्ताओं की हित में ही नियंत्रित करता है, फिर उससे कीमतों के नियंत्रण की स्वतंत्रता कैसे मिले गी?
इसका रास्ता है ,मगर थोडा कुटिल।
    पुरानी तकनीक, जैसे की 2G (या उस समय काल में जो भी तकनीक पुरानी हो रही हो) उसपर गरीब उपभक्ताओं के नाम पर कुछ एक वेबसाइट को खोल सकने की कीमत को पूरा मुफ़्त कर दो। यहाँ तक की मोबाइल data की जो कीमत वर्तमान में लगती है, उसे भी। इसके बदले में, trade-off में , सरकारों से और TRAI जैसी मुद्रा नियंत्रक संस्थाओं से नयी तकनीक की बाजार दामों को पूरा नियंत्रण-हीन करवा लो। अब बाकी सारी वेबसाइट, जो की बाकी  middleclass, upper middle class  उपभोक्ताओं को अक्सर ज़रुरत पड़ती है, उन्हें इन उच्च तकनीक स्पेक्ट्रम के ज़रिये ही, मनमौजी दामों पर बेच दो। यहाँ से उस निम्म तकनीक पर दी जा रही गरीबों की free basics की कीमत भी निकल आएगी, साथ ही अतिरिक्त लाभ भी बेइंतेहाँ मिल जायेगा। यहाँ उच्च तकनीक स्पेक्ट्रम पर उन पायरेसी का शिकार होने वाली वेबसाइट को भी यह लाभ होगा की उनको खोलने वालों से शुरुआत में ही कीमत वसूली जा सकेगी की बाद में यदि पायरेसी हुई तब भी नुक्सान नहीं होगा।
      यह है अमीरी-गरीबी के सामाजिक अंतर को कायम रखने का व्यापारिक लाभ।  कुछ गरीबों के नाम पर मुफ़्त देने के ऐवज़ में अतरिक्त लाभ कमाने की कुटिल नीति।
   
(नीचे लिखी कहानी विश्व विख्यात लेखक थॉमस फ्राइडमैन की पुस्तक "The world is flat" पर आधारित है।)
     इंटरनेट के आरंभिक काल में,यानि आरम्भ 1990s के दौर में इंटरनेट से जुडी व्यापारिक कंपनियों को बिलकुल समझ में नहीं आ रहा था की सूचना-प्रसारण से जुडी इस तकनीक जो की internet पुकारी जाती है, इससे व्यापर कैसे किया जाये। कंपनियों को यह तो समझ आ रहा था की सूचना आदान प्रदान से जुडी इन तकनीक से व्यापारिक लाभ कमाया जा सकता है, मगर मतभेद यहाँ पर थे की आम व्यक्ति को सीधे सीधे internet पर जुड़ने पर ही कीमत वसूलें, या फिर कुछ सीमित विशिष्ट उपयोगों पर ही कीमत लगाये। मतों का टकराव इस बात पर था की यदि आम व्यक्ति को इंटरनेट पर जुड़ने की ही कीमत लेने लग जायेंगे तब फिर सूचना आदान प्रदान से जुडी तकनीक यानि इंटरनेट पर बहोत कम आम व्यक्ति रुचि लेंगे और जुड़ेंगे। सीधा सवाल है की यदि इंटरनेट पर जुड़ने की भी कीमत है तब फिर कोई उससे जुड़ेगा ही क्यों, और आखिर वहां ऐसी कौन सी सूचना उससे मिलने वाली है जिसके लिए वह पैसे खर्च करे।
  तो उस काल में भीतरी समस्या यह थी की सूचना आदान प्रदान की तकनीक पर सर्वप्रथम तो सूचना को एकत्र भी करना पड़ेगा,जिसके बाद ही उसके आदान प्रदान के दौरान कोई व्यापर किया जा सकेगा। 1990 के उस दौर में इंटरनेट पर अभिरूचि रखने वाले बहोत कम ही व्यापारी दुनिया में अस्तित्व में थे, बस गिने-चुने कुछ-एक वह जो की कंप्यूटर निर्माण के व्यापर में थे। माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट्स जैसे लोगों ने तब यह रास्ता चुना की इंटरनेट पर जुड़ने पर आम आदमी को कोई कीमत नहीं ली जायेगी। उनकी कल्पनाओं में यह आया की इंटरनेट से जुड़ने को भी वास्तविक दुनिया में इंसान के जन्म लेने की ही भाँती cyber birth को मुफ़्त रखा जायेगा, बल्कि आम आदमी को उसके cyber birth के लिए सहयोग भी दिया जायेगा। इंटरनेट पर भी वास्तविक दुनिया की तरह एक साइबर दुनिया यानि cyber world बसाया जायेगा, और यहाँ आने वाले प्रत्येक नागरिक का एक साइबर birth (जन्म) करवाया जायेगा,जिसमे उसे वास्तविक दुनिया की ही भांति कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी, बल्कि cyber birth में सहयोग भी दिया जायेगा। व्यापारिक दृष्टि से इंटरनेट के उपयोग का यही मॉडल उचित था क्योंकि सूचना प्रद्योगिकी की मूल समस्या यही थी की सूचना है क्या, और उसे इंटरनेट पर एकत्र कैसे किया जाये। इसका हल यह है की प्रत्येक नागरिक जो कुछ कहता करता है, वही दूसरे नागरिक के लिए एक 'सूचना' है। और सूचनाओं को इंटरनेट पर एकत्र करने का सबसे आसान तरीका यही है की प्रत्येक आम नागरिक को मुफ़्त में cyber जन्म दिलवाया जाये। माइक्रोसॉफ्ट ने खुद इंटरनेट पर जुड़ने वाले आरंभिक सॉफ्टवेयर netscape navigator को इसी हिसाब से रचा की आम नागरिक उसे फ्री में उपयोग करके इंटरनेट से जुड़ सके। बाद में उसने भविष्य के version internet explorer वगैरह में भी यही बात जमाये रखी थी। उस काल में internet का मुख्य स्वामित्व अमेरिकी सरकार की कंपनी IBM के पास था, जिसमे बाद में माइक्रोसॉफ्ट ने काफी शेयर खरीद कर हिस्सेदारी बना ली थी।
    तब फिर आगे के काल में भारतीय मूल के एक उद्यमी, सबीर भाटिया ने उस युग में पहले से ही प्रयोग में रहे पत्राचार की एक उपयोग email को hotmail नाम के एक ब्रांड से मुफ़्त करके इंटरनेट मार्केट में उतरा। यह email तकनीक अस्तित्व तो 1970 के दशक से ही थी, मगर सैनिकय दूरसंचार के लिए।सबीर भाटिया और उसके सहयोगी ने इसे मुफ़्त बना करके आम नागरिक के प्रयोग के लिए बना दिया, जिसमे उसको अपना व्यापारिक लाभ मात्र कुछ promotional email या adervtisement ईमेल आम आदमी को भेज कर कामना था। यानि,आम आदमी के लिए लाभ था की कुछ एक promotional और advertisement ईमेल के बदले उसे बाकी पूरा मुफ़्त hotmail पर एक ईमेल account मिलता था।
   बिल गेट्स को सबीर भाटिया के इस उद्योग का व्यापारिक लाभ और पहुँच तुरंत समझ आ गया और उसने सबीर भाटिया से यह hotmail कंपनी बहोत मुंह मांगी कीमतों पर खरीद ली थी, जो की काफी सालों तक भारतीय अख़बारों की सुर्खियां बना रहा था।
     बाद में इंटरनेट पर ज्यों ज्यों आम आदमी का मात्र एक मुफ़्त में उपलब्ध ईमेल account खुल जाने से जो cyber birth होने लगा , तब फिर और अधिक मानवता को साइबर birth दिलाने वाली कंपनियां अस्तित्व में आने लगी, जैसे की yahoo! इत्यादि। 

(अब आगे का लेख स्वतंत्र रचना है।)
   internet व्यापर के इस मॉडल में व्यापर का वास्तविक अवसर advertisement और उत्पाद promotion आदि पर ही टिका है। यानि,जितनी अधिक से अधिक् आबादी किसी एक विशिष्ट इंटरनेट कंपनी के वेबसाइटों का उपयोग करेगी,उस कंपनी को उतने अधिक ads मिलेंगे और वह उतना ही अधिक लाभ कमाएगी। यानि इंटरनेट कंपनियों का पुरा का पूरा व्यापर मात्र ads पर ही टिका है, जबकि आम नागरिक पूरी तरह मुफ़्त इंटरनेट खोल सकने का लाभ पा रहा है। वर्तमान काल में internet की सबसे बड़ी कंपनी google ने तो घोषणा ही कर दी है की वह सदैव के लिए अपने सभी उत्पाद आम नागरिकों को मुफ़्त में दिलवाएगी। इसके बदले आज google कंपनी दुनिया में इंटरनेट की सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाली कंपनी है क्योंकि सबसे अधिक ads भी गूगल को ही मिलते है प्रसारण के लिए।
      अब बाकी कई सारी कंपनियों के लिए एक व्यापारिक थाम का दौर चल रहा है। इंटरनेट व्यापर के वर्तमान मॉडल में उसको ज्यादा कुछ कमाने का अवसर ही नहीं बचा है। वह कोई भी क्रांतिकारी उत्पाद क्यों न निर्मित कर लें, गूगल और बाकी अन्य कंपनियां उस उत्पाद के जैसे, मिलता जुलता सा, कुछ दूसरा बना करके मुफ़्त में उतार देंगे और फिर वही व्यापारिक चक्र चालू होगा :- ads प्रसारण के दम पर व्यापारिक लाभ। बात को piracy की भाषा में समझें तो यूँ समझिये की इंसानी रचनात्मकता को उसकी कीमत नहीं मिल पा रही है, क्योंकि वर्तमान मॉडल में वास्तविक लाभ तो ads को बेच कर ही कमाया जा सकता है। और आपकी रचनात्मकता को तुरंत का तुरंत ads नहीं मिलने वाले है, "xxxx भले में मैंने कितना दमदार यह लेख हिंदी में क्यों न लिख दिया हो।  :D xxxx"
    social media की नयी उभरती कंपनियों के लिए भी यही थाम उबासी देने लग गया है। अब फेसबुक चाहे जितना मानवता की आबादी को सम्मोहित कर ले, उसको व्यापार तो ads बेच कर ही करना है,और वही से लाभ कामना है। यानि उसके उपयोगकर्ताओं की इतनी बड़ी आबादी असल में एक भी उपभोक्ता नहीं है, सब के सब मुफ़्त में फेसबुक खोल कर काम चला रहे है।
   बस , फेसबुक और बाकी google के मुफ्तिकरण से विचलित कंपनियों को कुछ नया मॉडल परिवर्तन करके बाजार में लाना ही एक रास्ता सूझ रहा है,जिसमे की अब आगे इंटरनेट के उपयोगकर्ताओं में से ही उपभोक्ता भी निर्मित करे जा सकें। उसके लिए आवश्यक है की इंटरनेट पर आने की उस मुफ़्त जन्म में कुछ भेद भाव प्रकट करे जाएं, यानी अब cyberworld में भी अमीरी और गरीबी को जन्म दिया जाये। मानवता के प्रत्येक नागरिक को साइबर birth तो अब भी मुफ़्त में ही मिलेगा, मगर अब उपयोगकर्ता और उपभोगकर्ता में अंतर हो जायेगा। जो अधिक orkut और facebook चलाते है,वह उपभोगी बन जायेंगे।
   बल्कि दुनिया भर की सरकारों में बैठे राजनीतिक वर्ग को भी इसी में कुछ लाभ दिखने लगा है। फेसबुक ने जिस प्रकार से सीरिया, और मध्य-पूर्व एशिया के देशों में राजनैतिक क्रांति को जन्म दिया था, बाकी सब देशों की सरकारों में बैठा राजनैतिक वर्ग यह समझ गया है की जन जागृति को अगर डब्बे में बंद करके रोकना है तो एक चलांक तरीका तो यही से मिल जायेगा कि इंटरनेट पर फ्री के सोशल मीडिया को नष्ट हो जाने दो। न आम आदमी को सस्ते में सोशल मिडिया मिलेगा, न वह इतने जागृत हो पाएंगे कि सरकारों के खिलाफ एक-जुट हो जाएं। साथ ही, टीवी की मीडिया कंपनियों जिनपे प्राइवेट व्यापारियों का नियंत्रण पहले से ही था और जो की आम आदमी के मन मस्तिष्क में अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा था, टीवी समाचार उद्योग में वापस मार्किट में लौट आएगा। यहाँ इन राजनैतिक पार्टियों को जनता को उल्लू बनाने का वह पुराना वाला अवसर दूबारा से हाथ लग जायेगा।
   तो यह है नए वाले internet व्यापार के मॉडल की सामाजिक और राजनैतिक दिक्कतें, जो मानवता को वापस पुराने अर्धप्रकाशमयी युग में भेज देगी। मानवता ने अभी सोशल मीडिया के माध्यम से एक दूसरे का हाथ थाम कर सूचना, तथ्य, सत्य ज्ञान,जागृति के प्रकाश में प्रवेश करना आरम्भ ही किया है, -----और अब व्यापारिक और राजनैतिक लाभों के लिए इसे पुराने युग में धकेलने की तैयारी है।

Comments

Popular posts from this blog

The Orals

Why say "No" to the demand for a Uniform Civil Code in India

What is the difference between Caste and Community