याकूब को फांसी -- अंतरात्मा की हत्या

याकूब मेनन को मृत्यु दंड पर मुझे बहोत अपने देश की न्याययिक प्रक्रिया और बौद्धिकता पर अफ़सोस होने वाला है। मैंने यह पहले भी लिखा है, और आज भी वही दोहराता हूँ की न्याय ईश्वर की वाणी के समान दिव्य और निर्मल होना चाहिए। और जब कोई व्यक्ति अपने गुनाहों को अपने भीतर से स्वीकार कर लेता है तब उसमे ईश्वर की वाणी प्रबल हो चुकी होती है जो इस संसार में भी ईश्वरीय गुणों की रक्षा करती है।
   याकूब ने स्वयं से समर्पण किया, और खुद से पाकिस्तान से भारत आ कर समर्पण किया था। मज़ाल की याकूब बंधुओं में से किसी एक को आज तक भारतीय पुलिस संस्था पकड़ पायी हो। याकूब ने स्वेच्छा से यह समर्पण करके अपनी अंतर्मन की शुद्धता का प्रमाण दिया है। आखिर न्याय का अंतिम चरम उद्देश्य यही हैं। यदि समाज को भय और अपराध मुक्त करना है तब ईश्वर के इसी अंश को प्रत्येक नागरिक में प्रज्वलित करना होगा। जहाँ यह प्रज्वलित हुआ है, उसे संरक्षण देना होगा।
मज़ाल की '93 ब्लास्ट के बाकी बड़े नामी गुन्हेगार को मृत्यु दंड दिया हो। आखिर संजय दत्त को कितने वर्षों की सजा हुई और क्यों हुई यह सबको पता है। यदि याकूब अपने कर्म को हालात के मद्देज़र सही भी मानता है तब भी याकूब गलत नहीं है। क्योंकि अयोध्या मस्जिद का ढहना कानूनी तकनिकी रूप में गलत ही था, और जिसके लिए अभी तक किसी भी बड़े नाम व्यक्ति को सजा नहीं हुई है।
   याकूब अपने भाइयों में एकमात्र पढ़ा लिखा व्यक्ति था, और वह भी चार्टेड अकाउंटेंट। आप सब यह समझेंगे की देखो इतना पढ़ा लिखा हो कर भी उसने इस तरह का कर्म किया। मगर में यह देखूँगा की किस प्रकार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति से आ कर उसने यह शिक्षा प्राप्त करी और आखिर कर उसने कितने चरम परित्याग् से इसका मूल्य चुकाया है। आत्मसमर्पण। आज के ज़माने में ज्यादातर पढ़े लिखे लोग कानून तोड़ने में ज्यादा कुशल हैं, और इसी '93 ब्लास्ट की घटना के इर्द गिर्द भी हमें वही मिसाले मिलती है। बड़े नाम के लोग जान बूझ कर , बड़ी निर्लज्जता और बालक जैसे उन्माद में कानून तोड़ने वाले कर्म करते हैं, अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते हैं, और फिर तमाम दुनियादारी के हथकंडे लगा कर बच निकलते हैं। सामाजिक अंतरात्मा इतनी कमज़ोर नहीं है की सत्य का भावुक आभास भी न लगे प्रजा को। आखिर न्याय का उद्गम स्थल सामाजिक अंतःकरण ही होता है।
    याकूब की गलती का एहसास इन्हें क्षमा का सबसे उपयुक्त पात्र बना देता है। कारावास में इनके आचरण के समाचार इस विचार को पुख्ता करते हैं। मुझे अफ़सोस होगा यदि अभी भी मृत्युदंड दिया गया तो।

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