media trial शब्दावली से न्यायलय और जन जागृति पर कुप्रभाव

यह कलयुग है। यहाँ सभी उच्च तकनीकी शब्दावली इंसान को और अधिक बारीक और विश्लेषणपूर्ण बनाने के लिए नहीं होते है। बल्कि कुछ शब्द जनता की बुद्धि बंद कर देने के लिए भी होते हैं। आत्ममोह से ग्रस्त, नासमझ जनता को बुद्धू बनाने की व्यावसायिक, प्रशासनिक और न्यायिक आवशयकताएं बहुतेरी है। जनता बुद्धू नहीं बनेगी तो राजनैतिक दलों की दुकान कैसे चलेगी?

Media Trial ऐसा ही एक शब्द है। मीडिया ट्रायल का अभिप्राय है समाचार के टीवी और अख़बार माध्यम पर गहमा गहमी। अतीत में कुछ केस ऐसे हुए हैं जब मीडिया की गहमा गहमी में ही समाज ने किसी को दोषी मान लिया और उसके प्रति अपना व्यवहार सज़ायाफ्ता वाला कर लिए, जबकि बाद में कोर्ट ने उसे निर्दोष बरी किया। और तो और, निर्दोष साबित होने के बाद भी मीडिया की सरगर्मी के चलते उसकी छवि दोषी वाली ही बनी रह गयी थी।
ऐसे केस को दुबारा रोकने के लिए भविष्य में कोर्ट को media trial पर रोक या लगाम लगाने की ज़रुरत हो गयी।
    तो इस तरह सार्वजनिक कोर्ट व्यवस्था(open court system) में अब कुछ नए मूल्य-- एकांकता (privacy) और सैन्य सुरक्षा (security)-- हावी होना शुरू कर दिए थे।
    मगर क्या आपको एहसास है की यही मकसद तो चाहिए था कूटनैतिक , जुगाड़ बुद्धि लोगों को वर्तमान की सार्वजनिक कोर्ट व्यवस्था पर लगाम लगाने के लिए। media trial जैसे विचारों को फैलाने और प्रचार करने से जनता की बुद्धि मंद हो जायेगी और लोग खुद से ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर कोर्ट में सार्वजनिक न्याय को बंद करने की मांग करने लगेंगे। फिर ऐसे में भ्रष्टाचार, जुगाड़, सांठ गाँठ, और ऐसे कतनो ही अन्याय को छिपने के लिए आकाश्यक अन्धकार बनेगा।
    आज आप खुद भी सार्वजनिकता को बंधित करने की साज़िशों और कोशिशों को देख सकते है। वरिष्ट अभिवक्ता किसी पाखंडी बाबा के कर्मों से उसे बरी कराने के लिए सबसे पहले तो केस के media trial को रोकने की मांग करता है। क्योंकि हमारी बुद्धि पहले से ही मरोड़ी जा चुकी है, हम सब media trial कर देने के भय में आ कर वह बातचीत ही बंद कर देते है जो की सामाजिक मंथन का अंश माना जाता है। फिर कोर्ट में खरीदे गए जज साहब भी media trial रोकने का न्यायादेश दे देते है, जिसे की कोई भी विरोध भी नहीं करता है। इसके बाद कोर्ट के भीतर जो शुरू होता, उसको जानने के लिए हमारे पास बुद्धि और तथ्य कुछ भी नहीं बचता है।

    क्या है यह सार्वजनिक कोर्ट सिस्टम और यह क्यों हमारी न्याय व्यवस्था की रीढ़ माना जाता है?
     न्यायालय का सार्वजनिक होना इतना आवश्यक है जो की 19वीं शताबदी के विचारक के शब्दों में नीचे साफ़ झलकता है

Jeremy Bentham , philosopher, theorist.

   Where there is no publicity, there is no justice. Publicity is the very soul of justice. It is the keenest spur to exertion and the surest of all guards against improbity. It keeps the judge himself while trying under trial.

Justice Brandeis succinctly expressed it , "Sunshine is said to be one of the best deinfectants".

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