तर्क से उच्च बौद्धिक क्रिया है परिमेयकरण

तर्क (=Logic) देने से भी उच्च एक बौद्धिक क्रिया है जिसमे भारतीय मानसिकता अभी भी अपने एक हज़ार साल की गुलामी से बंद हुए दरवाज़े दुबारा खोल नहीं पायी है।
   वह बौद्धिक क्रिया है परिमेयकरण (Rationalisation)। जिस दिन हमारे देशवासियों को किसी भी अनुभविक घटना (phenomenon) को समझ कर के उसका परिमेय (मापन, measure) करना आ जायेगा, हम न्याय करना सीख जायेंगे। तब हम इस विध्वंसक, मतभेदि छल कपट वाली राजनीति से, इस कूटनीति से मुक्ति पा लेंगे। न्याय कर सकना मनुष्य की व्यक्तिगत बौद्दिक स्वतंत्रा का सर्वोच्च शिखर होता है। जब हम परिमेयकरण करना सिखाने लगेंगे तब हम शांति और समृद्धि प्राप्त कर चुके होंगे।
     न्याय वह होता है जो स्थान, समय या प्रतिष्ठा से प्रभावित हुए बिना समान सामाजिक प्रतिक्रिया के लिए हम सभी को बाध्य करता है। न्याय समरूप (homogeneous) होता है। न्याय वैचारिक भिन्नता, मतभेद, रंग भेग, वर्ण भेद,  सम्प्रदाये भेद इत्यादि भेदों से ऊपर उठा कर मुक्ति दे देता है। जब हम न्याय करना सीख जाते हैं तब हम वास्तव में सामाजिक एकता के सूत्र को प्राप्त कर लेते है और एक संघटन, एक इकाई बनाना सीख लेते है।
    तो परिमेयकरण इंसानी बुद्धि का वह उत्पाद है जिसे यदि हम सीख जायेगें तब हम वास्तव में एक समाज और एक राष्ट्र बनाना सीख जायेंगे। अभी तक हमने राष्ट्र के नाम पर एक साँझा किया हुए इलाका, भू-क्षेत्र बनाना ही सीखा है, जिसका की हम सब मिल कर एक साथ क्षेत्ररक्षण तो कर रहे हैं, मगर उसके बाद हम साथ में आपसी झगड़ों और विवादों में उलझ कर समृद्ध नहीं बना पा रहे हैं।
     इसका कारण है की हमने भिन्न विचारों की अभिव्यक्ति को स्वतंत्रा दी हुयी है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति का कोई दोष नहीं हैं, दोष हमारे बौद्धिक क्षमताओं का है की हम स्वतंत्र अभिव्यक्ति को न्याय को तलाशने में उपयोग नहीं कर रहे हैं।
     हमारे यहाँ दोहरे मापदंडों की समस्या विकराल हो गयी है। समाचार सूचना तंत्र, कूटनैतिक दल, प्रशासन, न्यायपालिका -यह सब दोहरे मापदंडों को चिन्हित करने और निवारण करने में असफल हो गए हैं। जन जागृति में दोहरे मापदंडों को स्वीकृति मिलती है। इसलिए सामाजिक न्याय विलयित हो चूका है। यह हमारे यहाँ पिछले एक सहत्र युग से होता आ रहा है। भिन्न भाषा, बोलियाँ, विचार, पंथ, सम्प्रदाय इत्यादि के बीच सौहार्द प्राप्त करने की विवशता ने हमें दोहरे अथवा बहु-मापदंडों को स्वीकृत करना सीखा दिया है।
    परिमेयकरण उस बौद्धिक क्रिया को कहा जाता है जब हम ऐसे सिद्धांत को तलाश लेते हैं जिनसे हम दो नहीं-मिलती-जुलती वस्तु अथवा विचार के मध्य भी न्याय करना सीख जाते हैं।यदि किसी अनुभविक घटना को परिमेय करने, मापने का, सिद्धांत हम खोज लें तब हम तर्क का प्रवाह भी अनुशासित करके उस सिद्धांत के अनुरूप कर सकेंगे। अन्यथा तो सिद्धांतों की अनुपस्थिति में दिये तर्क अँधेरे में तीर चलने के समान होता है; जिस वस्तु पर तीर लग जाये, उसी को उस तीर का उद्देशित लक्ष्य घोषित कर दिया जाता है।
    
   वर्तमान युग की कूटनीति में हमारा समाचार सूचना तंत्र, हमारा मीडिया, हमारी बौद्धिक क्षमताओं में इसी परिमेयकरण के अभाव का आइना है। नीचे दिए गयी कुछ व्यंगचित्र इसी को दर्शाते हैं।

Comments

Popular posts from this blog

The Orals

Why say "No" to the demand for a Uniform Civil Code in India

About the psychological, cutural and the technological impacts of the music songs