बहरूपिया तर्क - कलयुग में उलटी गंगा के कारण

प्रभु यीशु ने एक बार एक कुलटा स्त्री की जान जनता के आक्रोश से बचाई थी जब उन्होंने यह कहा था की इस स्त्री को पहला पत्थर वही मरेगा जिसने आज तक कोई पाप नहीं किया है।
   यह बहोत ही दयालु और ईश्वरीय कर्म था जो की प्रभु ही निभा सकते थे। मगर कलयुग में जहाँ गंगा उल्टी बहती है, घनघोर पापी लोग भी प्रभु यीशु के इसी तर्क को प्रयोग करके अपना साहस प्राप्त करते हैं, और अधिक बेशर्मी के साथ पाप करने के लिए। उन्होंने प्रभु के तर्क का एक मिलता जुलता, बहरूपिया तर्क विकसित किया हुआ है जिसे वह बुलाते है की "हमाम में तो सब ही नंगे हैं"।
आप को याद होगा की कैसे सलमान खुर्शीद से लेकर न जाने कितनों ही पॉलिटिशियन ने यही fundae दे कर अपने घोटालों के पकड़े जाने का क्षेत्र रक्षण करने की कोशिश करी थी।
    आज आम आदमी पार्टी के आशीष खेतान के मुंह से भी प्रशांत भूषण के लगाये आरोपों में कलयुग वाला यही तर्क सुनाई दिया है। खेतान प्रशांत भूषण पर 'जनहित याचिकाओं की फैक्ट्री' चलाने के दोष लगा रहे हैं , की ज़रूर इन भूषण पिता-पुत्र जोड़े ने अपनी संपत्ति सिर्फ जनहित याचिकाओं से तो नहीं कमाई होगी। वकील भाषा में समझें तो आशीष खेतान इस समय खुद insinuation(इशारे बाज़ी में आरोप लीपा पोती करना) में व्यसन कर रहे है। क्योंकि प्रशांत भूषण ने अपने कारण बताओ नोटिस के ज़वाब में खेतान के बारे में खुलासा किया है की खेतान का आचरण किस संभावित वजहों से अनुचित निर्णय लेने के लिए प्रेरित है।
    
     बहोत दुख़द बात है की आज अरविन्द केजरीवाल ऐसे लोगों के गुट में जुड़ गए है जिनका दर्शन बहोत कमज़ोर और क्षुद्र है। भ्रष्टाचार की जंग में इस सन्दर्भ को समझना बहोत ज़रूरी था की मकसद सिर्फ प्रशासन और न्यायपालिका से भ्रष्टाचार निवारण का था, जनता को अपने मनवांछित सदमार्ग पर चलना सिखाने का नहीं। आधे से अधिक लोग तो इस समय इसी दुविधा के चलते अपने उद्देश्य से भटक जा रहे है की जब हमें लोगों को सदमार्ग पर चलने की बुद्धि नहीं देने है तब फिर भ्रष्टाचार उन्मूलन कैसे होगा ।!  फिर यह लोग अपनी दुविधा का इलाज़ करते हुए या तो खुद को साधू संत मानने लगते हैं, या फिर चुपके से समझौता करके खुद भ्रष्ट हो जाते हैं।
     यह निरंतर शक्ति संतुलन का सन्दर्भ और मार्ग अभी भी लोगों की बुद्धि में अच्छे से समाया नहीं है। उद्देश्य एक तंत्र, एक व्यवस्था के निर्माण का था, मगर बहोत से लोग बार बार भ्रमित हो कर इसे जनता के नैतिक उत्थान समझ बैठते हैं।
     यह समरण रखना और व्यवहारिकता में लागू करना ज़रूरी है की प्रजातंत्र में सरकारों का कार्य सिर्फ आर्थिक और राजनैतिक स्वतंत्रता का वातावरण तैयार करना है, जनता को किसी निश्चित सदमार्ग पर चलवाने का नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के स्वतंत्रता उदघोषणा पत्र (Declaration of Independence) में रचित प्रसिद्द पंक्ति In Pursuit of Happiness ( जीवन आनंद की तलाश में) के दार्शनिक प्रसंग में इस विचार को ही केंद्र रखा गया है की प्रत्येक नागरिक अपनी ख़ुशी खुद ब खुद ढूंढेगा, सरकारों का कार्य सिर्फ नागरिक की आर्थिक और राजनैतिक स्वतंत्रता को कायम रखने का है। प्रजातंत्र में जीवन संतुष्टि इसी प्रकार से प्राप्त करने का मार्ग स्वीकृत किया गया है। यही प्रजातंत्र की विशिष्ट कसौटी है।
    मगर लगता है की हमारे देश में आयत कर के लाये गए 'प्रजातंत्र' में लोगो को अभी तक इस विशिष्टता को समझने में दिक्कत आ रही है। लोग बार बार भ्रष्टाचार उन्मूलन को नैतिक उत्थान से जोड़ कर देखने लगते है। फिर वह "हमाम में सब नंगे है" का तर्क लगा कर, एक मुर्ख अयोग्य व्यवस्था को क्षेत्र-रक्षण दे रहे हैं। वह भरष्टाचार को संरक्षण दे रहे है, जिसमें की अयोग्यता को भी नेतृत्व का भरपूर मौका मिलता है। नतीजा यह होता है की अयोग्यता ही बार बार योग्यता पर विजयी होने लग गयी है।

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