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Showing posts from August, 2014

The theory of Superboss as a necessity for long-term sustenance of Political group in India.

The theory of "Superboss" as a necessity for long-term sustenance of Political group in India. प्रत्येक व्यक्ति समूह को नेत्रित्व की आवश्यक्त अवश्यम्भव होती है। नेत्रित्व वह दिशा(=तुरत उद्देश्य) का ज्ञान देता है जिसके लिए सभी सदस्य मिल कर युक्ति लगाते है। प्रशन है की राज्य संचालन की भिन्न भिन्न वातावरण में यह नेत्रित्व किस क्रिया से चुना जाता है अथवा "उभरता है" ? साधारणतः हम सभी आशा यही रखते है कि नेतृत्व योग्यता के आधार पर उभरता है। मगर एक गहरे दृष्टिकोण में एक वचन यह है कि 'योग्यता' के मापन की कसौटियां सांस्कृतिक वातावरण पर निर्भर करती है।अर्थात, एक परिपेक्ष में चापलूसी, चमचा गिरी भी 'योग्यता' मानी जा सकती है। चलिय, पहले यह समझने का प्रयास करते हैं कि "योग्यता" में किन गुणों को आदर्श वातावरण में होना चाहिए:- उधाहरण के लिए- एक आदर्श (जो की वस्तुतः काल्पनिक देश Utopia को मान लीजिये) प्रजातंत्र में जहाँ **प्राकृतिक न्याय व्यवस्था** एक सांकृतिक व्यवहार है, वहां योग्यता के पैमाने शिक्षा उपाधि, धरातल की उपलब्धियां, तर्क और विचारों का बाध्

The thoery of Sustenance of Political Party in India, and its predictable outcome

The fall of Modi's regime sooner than later is predictable. आखिर कितने दिनों तक सिर्फ मोदी नाम को महिममंडल करके भाजपाई सत्ता में रह पाएंगे?? कभी न कभी तो जनता को अपने सु-शाशन के प्रमाण देने ही पड़ेंगे। तथ्यिक सत्य यह है कि विकास के काम 'रोज़मर्रा -टाइप' कार्य होते हैं जो की सत्ता में कोई भी हो-चलते ही रहते हैं। इसलिय सु-शासन 'विकास के कार्य' की उपलब्धियों से विकास के पापा गिना नहीं पाएंगे। भाजपा के बाकी निवार्चित नेता कब तक सिर्फ मोदी नाम पर वोट ले सकेंगे? भारतीय चुनाव व्यवस्था का सत्य वचन(theorem) शायद यह है कि जो पार्टी जितनी तेजी से सिर्फ एक व्यक्ति के महिममंडल से ऊपर आती है, वह उतनी जल्दी ओझल भी हो जाती है। क्योंकि महिमंडल को सिद्ध भी करना पड़ता है। शायद इसलिए राजनीतिक पार्टियाँ अतीत के किसी दिवंगत नेता के नाम का प्रयोग करती हैं। अतीत का दिवंगत नेता पहले से ही सिद्ध होता है! कब तक भाजपाई नेता प्रादेशिक चुनावों में मोदी की माला से काम चलाएंगे? कब तक दंगे करवाते रहेंगे वोट बटोरने के लिए? फिर यदि एक बार इनकी हार का सिलसिला निकल पडा तब यह मोदी से विद्रोह करेंगे।

A governor of no free-will choice of his own !!

With the resignation of eight provincial Head of the Province, the Governor, a Moral and Constitutional question stares at our nation--that, WHO IS THE KEEPER OF OUR CONSCIENCE   IF THE HEAD OF THE STATE AND/OR PROVINCE HIMSELF ENJOYS HIS POSITION **AT THE  PLEASURE OF ** SOMEONE ELSE! , the Central Government?? Does a populary elected government guarantee to be a "Keeper of the Conscience" to have made the governors to resign without having a PUBLIC reason, known and understood by the people of their own senses??
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Neither irony nor sarcasm is an argument.

Neither irony nor sarcasm is an argument.

बदनीयत वकील-राजनेता का खुल्ली बहस की चुनौती देने का माँझरा क्या है?

माननिय मनीष तिवारी का पुर्व-CAG विनोद राय को खुली बहस की चुनौती कुछ समझ में नहीं आई। या यह समझूं की इन नेताओं की जनता को उल्लू बनाने की नई चालबाजी ही यह है की गलत पर गलत करते रहो, और जब अपनी करतूतों के खुलासे हो तब *खुली* बहस की चुनौती दे कर जनता को गुमराह कर दो कि जनता समझ ही न पाए की कौन सही है और कौन गलत ।   यह मनीष तिवारी को बहस *खुल्ले* में करवाने  का इतना ही साहस और विश्वास है तब फिर PAC मीटिंग का टीवी पर सीधा प्रसारण ही क्यों नहीं करवा दिया था ?? तब शायद बचाव में तर्क यह पिरोये जाते की अभी अगर जनता में खुल्ले में बात जायेगी तब जनता भ्रमित हो सकती है !   यह पूरा का पूरा राजनैतिक तबका उल्लू बनाने का यह तरीका खूब इख्तियार करता है। यह तथ्यों से सम्बंधित गतिविधियों को जनता के सामने खुल्ले में दिखलाने से बचता है। तथ्य यदि जनता के सामने आयेंगे तब जनता अपने विवेक से खुद ही समझ जाएगी की क्या सही है और क्या गलत। इसलिए यह बदनीयत राजनेता तथ्यों को जनता के सामने इकत्र करने से बचते हैं। और जब तथ्यों के खुलासे "आरोप" बन कर जनता में आते है तब इनके पेशेवर पालतू वकील "खुल्ली

उन्माद वाला व्यवहार क्या है?

qAFanatics are created when people are lacking the foundational analytical sense- mostly of the science of judgement. Fanatics cannot tell a 'Fact' from a 'belief'. For them, everything is a result of human mind admiring to existence of thing by certain environmental conditioning. This type of thinking process is similar and classic to famous the Rene Descartes's way of thought described by his famous quote, ''I think and therefore I am''. Rene Descartes was a famous french philosopher and a mathematician whose greatest work we know about is the Co-ordinate Graph System of representations, also known in his memory as the Cartesian Co-ordinate System.  But his quote of Existentialism mentioned above was quite a cocaine of human Intellectualism, by which it would become impossible for human senses to have confidence to differ between a Car and  Truck, a table and a bed-- those most basic objects which normally the human senses pick the difference with

अरुण जेटली का निर्भया घटना से सम्बंधित दुर्भाग्यपूर्ण बयान के विषय में

अरुण जेटली ने निर्भया घटना को पर्यटन पर हुयी हानि की वजह से "छोटी घटना" कह कर बहोत छोटी, एवं खपतखोरी-मुनाफाखोरी मानसिकता का परिचय दिया है। इस प्रकार की मानसिकता वाले लोग सामाजिक और मानवीय भावनाओं की कद्र नहीं करते हैं बल्कि पैसे, धन और अर्थ को ही सभी भावनाओं-सुख और दुःख का केंद्र मानते हैं। यह निकृष्ट और नीच सोच है जिससे कभी भी जन-कल्याण नहीं साधा जा सकता ,बल्कि विकास और अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के नाम पर इंसान और समाज में अमानवीयता, बेचैनी, लोभ जैसे दुर्गुण ही आते।   यह सही है की निर्भया घटना ने देश की छवि पर दुश्प्रसार किया। मगर फिर इसने देश की अंतरात्मा को जगाया भी था। जेटली जी शायद पर्यटन में सुधार और देश की छवि सुधारने के लिए प्रशासन व्यवस्था दुरुस्त करते। अपनी पार्टी में से निहाल चाँद जैसे आरोपी मंत्रियों को निकालते। यह क्या किया कि निर्भया को ही घटना से आये प्रभावों का दोषी बना दिया और अपनी अंतरात्मा को फिर से बेच कर सुला दिया। क्या मानवीय भावना और संवेदनशीलता प्रचार और विज्ञापन की मोहताज होती है? क्या अंतरात्मा को आर्थिक आवश्यकताओं के आगे झुक कर मनुष्य को ख़ुशी अनु

What's the plan of the minister of surface transport, Mr Gadkari, in regard to the RTO closure??

What's the plan of the minister of surface transport, Mr Gadkari, in regard to the RTO closure?? Are they trying to ''invent'' in India the European model of Driving License Authority by secretly  ''copying it from the west'' like it has happened with entire Administration and the Constitution. Then what is the motive of seeking the public opinion on this matter?? To score a political brownie to appear to be people-friendly , while yet accusing and taunting the AAP And Kejriwal of doing ''referendum'' all the while ! Conventionally, the administrative systems are not ''invented'' (used in authentic sense, not pseudo sense as previously) BUT they 'Evolve' by corrections , heuristics , trial-and-error. If at all Mr Gadkari is so keen to appear people-friendly genuinely, then he should lay before the people a DRAFT plan of what his administration has chalked out for a new replacement by accounting for the knowl

Why Truth MUST win and MUST prevail ? What is the environmental cost of the truth being defeated?

Why Truth MUST win and MUST prevail ? What is the environmental cost of the truth being defeated? They say that the value of Truth is not determined by whether it loses or wins. But this is incorrect. some smaller truth may have the tendency to dissolve out in time, but the value of Truth is eventually to be determined by its victory against the False. If it doesn't eventually win, despite a number of defeats against the False, THEN IT IS NOT A TRUTH !! There is definitely going to an environmental cost to the defeat of Truth. What is the reason?? Did you ever wonder on that?? What is the driving force for Truth which make it a winner in the last, to have the last laugh?? The FORCE OF NATURE ! The environmental cost attached to the defeat of Truth becomes a relevant thought when considered from this angle. Truth is what is supported by a force OF mother nature. Truth is governed by the how the nature operates. Truth is in a way Scientific, Truth is Natural Justice. the grow

"भक्तजन" कौन हैं ?

भक्त जन हैं कौन?? यही तो है वह भ्रष्टाचारी जो भ्रम फैला कर खुद को बचा रहे हैं। स्वच्छ नागरिक को स्पष्ट पता होता है की आदर्श रूप में एक न्याय पूर्ण समाज चलाने के लिए क्या क्या कदम उठाने चाहिए। यह भक्तजन हैं की उन कदमों को विफल करने में लगे हैं , ताने कस कर की "अरविन्द को लगता है कि वही दूध का धुला हैं", " हमे अरविन्द से अपनी ईमानदारी का कोई सर्टिफिकेट नहीं चाहिए" । यही सब वचन भक्तजनों की पहचान है। यदि शंकराचार्य ने इन्हें टोका नहीं होता तो इन्होने "हर हर xxxx" का चुनावी नारा ऐसा बुलंद किया था की महादेव को भी इन्होंने अपने आराध्य xxxx के पीछे कर दिया था। अब आजकल भक्तजन आप पार्टी के समर्थकों पर अंधभक्त होने का ताना कस रहे हैं। ऐसे में यह न्याय कैसे होगा की असल अंधभक्त कौन है और कौन नहीं? इस समस्या का हल है "सिद्धान्तवाद"। जी हाँ,  असल-नक़ल में इस भेद को करने के लिए ही आदर्श सिद्धांतों की उचित समझ इंसान में होना ज़रूरी है। जो बुनियादी सिद्धांतों को (रसायन शास्त्र में पढ़ाई जाने वाली वह परिकाल्पनिक आदर्श गैस जिसका खुद का कोई अस्तित्व प्रकृति में न

अयोग्यता को सफलता के मार्ग पर प्रशस्त करने वाला सबसे मजबूत साधन भ्रष्टाचार है,  आरक्षण व्यवस्था नहीं।

अयोग्यता को सफलता के मार्ग पर प्रशस्त करने वाला सबसे मजबूत साधन भ्रष्टाचार है,  आरक्षण व्यवस्था नहीं।     आम आदमी पार्टी के उदय से आरम्भ हुई वाद-विवाद और चिंतन से यह निष्कर्ष मैं स्पष्टता से कह सकता हूँ। यदि कोई भी दल-गत कूटनैतिक चुनावी दल नागरिकों से यह विश्वास प्राप्त कर लेगा की प्रशासन व्यवस्था में अब कभी भी कहीं भी भ्रष्टाचार नहीं चलेगा, तब उसको जनता का समर्थन मिल जाएगा की वह देश में लागू वर्तमान आरक्षण व्यवस्था को निरस्त कर के संयुक्त राज्य अमेरिका के "सुनिश्चितीकरण प्रक्रिया"(affirmative action) की भांति एक 'सामाजिक न्याय आयोग' बनाकर देश के पिछड़े तथा दलित समुदायों को सामान्य योग्यता मापदंडों से रोज़गार और उचित आर्थिक न्याय दे सके।   वर्तमान में हमारे देश ने  'सुनिश्चितीकरण प्रक्रिया' के लिए आयोग न बना कर सीधे आरक्षण प्रणाली स्वीकार करी है। हमारी यह व्यवस्था अमेरिका में लागू व्यवस्था से भिन्न है क्योंकि वहाँ रंग भेद से पिछड़े लोगों के लिए योग्यता के मापदंड नीचे करने के स्थान पर यह आयोग है जो सुनिश्चित करता है की किसी भी प्रकार के भेदभाव की वजह से व्यक्ति