भाजपा में ब्राह्मणवादी हिंदुत्व और प्रवृत्तियां

1)खड़मास की वजह से छत्तीसगढ़ के नवनिर्वाचित भाजपा के मुख्यमंत्री राघुवर दास ने शपथ ग्रहण को टाल दिया था।(स्रोत: समाचार पत्र टाइम्स ऑफ़ इंडिया)
2) मानव संसाधन राज्यमंत्री श्रीमती स्मृति इरानी ने अपने निजी ज्योतिष के साथ 4लम्बे घंटे व्यतीत किये।
3)भाजपा में कूट-वैज्ञानिक आचरण (pseudo-scientific), वह जो वैज्ञानिक होने का छलावा करता हो) होने के आरोप पर भाजपा समर्थकों ने आम आदमी पार्टी के शीर्ष अरविन्द केजरीवाल की इस्लामी और सूफी मजारों पर चादर चडाने वाली पिक्चरें प्रकाशित करी, शायद यह जताने के लिए की केजरीवाल "sickular" हैं।
4)  आरंभ के दो बिन्दों को तीसरे बिंदु से जोड़ने पर निष्कर्ष यही निकलता है की भाजपा समर्थकों में 'ईश्वरियता' और 'अंध-विश्वासों में मान्यता' के मध्य भेद कर सकने की योग्यता आज भी विक्सित नहीं है।
और इसके प्रमाण-लक्षणों में निम्न तीन बिंदु हैं:
5) पाखंडी आसाराम बापू, बाबा रामपाल के अधिकाँश पालक भाजपा के भी समर्थक हैं ,और इन्हें लगता है की भाजपा ही इन "संतों" को पुलिस से बचा कर "हिंदुत्व" की रक्षा कर सकती है।
6) बॉलीवुड की नवप्रक्षेपित सिनेमा "पीके" के विरोधी अधिकांश तौर पर भाजपा समर्थक ही हैं। भाजपाइयों ने अपने शीर्ष नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी द्वारा "पीके" की प्रशंसा को 'निजी बयान' बताया है।
7) अधिकाँश भारतीय लोग जादू, चमत्कार इत्यादि के पीछे एक वैज्ञानिक कारक होने की बात तो स्वीकार करने लगे हैं, मगर अब इसके ठीक विपरीत के एक भ्रम -- जिसमे ज्योतिष, मन्त्र विद्या, आयुर्वेद, पौराणिक काल के तिलस्मी वस्तुएं जैसे पुष्पक विमान, ब्रह्मास्त्र इत्यादि का वर्तमान के वैज्ञानिक उत्पाद वायुयान, परमाणु बम के समतुल्य (कूट-)"वैज्ञानिक" होने को भी मानने लगे हैं।
   इस प्रकार भारतीय जागृति एक प्रकार के भ्रम,और छल से बाहर तो आई है मगर अब इसके ठीक विपरीत किस्म के भ्रम और छलावे का शिकार बन गयी है।
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स्वतंत्र अंतःकरण में एक प्रश्न उठता है।:
   क्या किसी भी ईश्वर के प्रति आस्था, यानी 'ईश्वरियता'(spirituality) को हम एक "कूट वैज्ञानिक"(pseudo-scientific) आचरण मान सकते हैं?
    अतीत काल में "ईश्वर के प्रति आस्था" में से ही "अंध-विश्वासों" का उदगम हुआ था। मगर क्या आज भी हम "ईश्वर के प्रति आस्था"(believing) और "अंध-विश्वास" में कोई भेद नहीं नहीं करते हैं ?
       यह समझ लेना आवश्यक है की भारत की आबादी में आज भी बाहुल्य जनसँख्या ईश्वर के प्रति आस्था (spiritualism), आस्तिकता (religious, theistic) , और "अंध विश्वास" (superstitious-ness)  में अंतर कर सकना नहीं जानती है।  Majority of Indians cannot make difference between Spiritualism, Theism and Superstitious-ness.
     इस विचित्र समस्या के चलते भारतीय जनसँख्या पंथनिरपेक्षता (secularism), नास्तिकता , और अंध-विश्वासों में भेद कर सकने में भी असमर्थ रहती है। यानी अधिकाँश भारतियों की समझ से:- जो सेक्युलर है, वह अवश्यभावी नास्तिक भी है। (जबकी पंथनिरपेक्षता के वास्तविक सिद्धांत नास्तिकता को भी इतना ही दूरी देता है जितना किसी और पंथ को।)
  अन्यथा भाजपा समर्थकों के लिए सेक्युलर का "व्यवहारिक" अभिप्राय मुस्लिम-परस्त होना,तथा हिन्दू-विरोधी होना है।
     इतना तो पूर्ण विश्वास के साथ वचन दिया जा सकता है की भाजपा समर्थकों में बैद्धिक विचार भेद का आभाव है।भाजपा के समर्थक वह भ्रमित लोग है जो धर्म,आस्था तथा विज्ञान से सम्बंधित कई सारे सामजिक प्रत्यय(concepts) में अंतर नहीं कर सक रहे हैं। भाजपा समर्थक इन प्रत्ययों से अनभिज्ञ हैं।
     इस स्वतंत्र-लेख का उद्देश्य भाजपाइयों के ब्राह्मणवादी चरित्र के उल्लेख करने का है। लेखक स्वयं ब्राह्मण(Brahman) और ब्राह्मणवाद(brahminism) में भी अंतर करता हैं। मेरा उद्देश्य उस समुदाय की भावनाओं को चोट पहुचाने का कतई नहीं है जो की जातवादी हिन्दू धर्म की वर्ण-व्यस्था में ब्राह्मण जाती के है। हाँ, मैं ब्राह्मणों, और बाकी अन्य हिन्दुओं के उस "ब्राह्मणवादी" आचरण की आलोचना अवश्य करना चाहता हूँ जिसमे आजतक कूट(छल करने वाले) वैज्ञानिक सिद्धांत और सत्यवान वैज्ञानिक सिद्धांत में भेद कर सकने की बौद्धिक योग्यता, इक्कीसवी शताब्दी के एक दशक बाद भी, विक्सित नहीं हो पायी है।
   अक्टूबर 2014 में अमेरिका के प्रसिद्द समाचार पत्र न्यू यॉर्क टाइम्स में छपे एक लेख False teachings for India's students में भाजपा तथा राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ की आलोचना करी गयी थी की शायद सत्ता में आने पर यह गुट भारतीय शिक्षा व्यवस्था में ऐसे विषय ज्ञान अनिवार्य कर देगा जिनको दुनिया के किसी भी सम्मानित विद्यालय में, कहीं भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का स्थापित नहीं माना जाता हैं। लेख में यह बताया गया था की कट्टर हिंदूवादीयों का यह संघठन, 'संघ', अपनी अप्रमाणित वैज्ञानिक विचारधारा में आज भी कई सारे मध्यकालीन हिन्दू कर्मकांडों को "वैज्ञानिकता" का मुहर देने पर तुला हुआ है जिसे की कोई भी सम्मानित वैज्ञानिक समुदाय शायद ही गंभीरता से ले। इसमें ज्योतिष "विज्ञान" , हस्तरेखा "विज्ञान", मन्त्र विद्या, इत्यादि का नाम शामिल है जो की असल में "वैज्ञानिक" होने का छलावा है, यानी कूट-वैज्ञानिक(pseudo-scientific) हैं।।
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   इधर भारत में जातपात की प्रथा पर नज़र दौड़ाएं तो हम पायेंगे की छुआछूत के शिकार हुयी जातियों ने "ब्राह्मणवाद"(Brahmanism) को अपनी इस दुर्दशा का कारक माना था,और ब्राह्मणवाद के विरोध में जिन आचरणों को वह आज भी स्वीकार कर नहीं करते है वह यही हैं : ज्योतिष, हस्तरेखा इत्यादि, मन्त्र उच्चारण, इत्यादि।
   
    इस लेख के उपयोग के लिए मैं 'ब्राह्मण' और 'ब्राह्मणवाद' में अंतर करना चाहूँगा। 'ब्राह्मण' से मेरा अभिप्राय है वह ज्ञानी, मृदुल, सद-आचरण और परम त्यागी व्यक्ति है जो समाज-कल्याण के लिए अपना जीवन न्यौछावर करता है, और शिक्षा वितरण करता है। भगवान् मनु के अनुसार ब्राह्मण सामाजिक वर्ण व्यवस्था का सर्वोच्च पदाधिकारी है, क्योंकि वह जन-कल्याण के लिए स्वयं के सुखों का त्याग करता है। और इसलिए समाज के दूसरे वर्णों पर भावुक बाध्यता होती है की वह अपना आभार व्यक्त करते हुए ब्राह्मण को बहोत सम्मान के साथ दान देना दें। यह सम्पूर्ण धरती ब्राह्मणों की है, ऐसा व्यवहार रखना चाहिए।
मनु के नियमों के अनुसार यह आवश्यक नहीं है कि ब्राह्मण किसी विशेष वर्ण व्यवस्था में जन्म लिया हुआ हो, जिसके पूर्वज अपने इस ऊपर लिखित व्यवहार के लिए जाने जाते थे, सम्मानित थे। यानी ब्राह्मण शब्द एक विशेषण संज्ञा है,ऐसे व्यक्ति के लिए जिसमे "ब्राह्मण" स्वभाव है,चाहे वोह किसी भी जात अथवा सम्प्रदाय का हो।
   'ब्राह्मणवाद'(brahminism) से मेरा अभिप्राय है ऐसे स्वभाव का जो की स्वयं-भोगी, दुर्व्यवहार, अभिमानी, अहंकारी, आत्म-मोहित , निकृष्ट आचरण रखता है, मगर चुकी उसका जन्म किसी ब्राह्मण सम्मानित जात में हुआ है,इसलिए वह स्वयं के ब्राह्मण-शिरोमणि होने के अहंकार में जीवन जीता है।
   छुआछूत तथा सामाजिक पिछड़े पन के भुगतभोगी जातियों ने ब्राह्मणवाद को जिन विशेष व्यवहारों से चिन्हित किया था वह सब यह कूट-वैज्ञानिक कलाएं थी,जिन्हें की ब्राह्मणवादियों ने अपने ईश्वर के विशिष्ट सम्बन्धी होने के प्रमाण के रूप में "स्थापित"(आस्था गत) करवाया था। मध्यकाल में ऐसी सामाजिक जागरूकता थी की यह सब शास्त्र सिर्फ और सिर्फ "ब्राह्मण"(=ब्राह्मण वादी) को ही आते हैं और कोई अन्य इन्हें नहीं सीख सकता है। संस्कृत भाषा का वर्जित होना, वेदों के श्लोकों का निम्न जातियों के कानों में भी नहीं पड़ने देना - यह सब ब्राह्मणवादी तर्कों में स्वीकृत था।
    
    मगर समय के साथ ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक प्रमाणिकता का ज्ञान उत्कृष्ट हुआ, वैज्ञानिक प्रमाण के नियम अधिक स्पष्ट और जागृत हुए, यह सब विद्याएं "अंध-विश्वास" प्रमाणित("घोषित") होती चली गयीं। इनकी वैज्ञानिकता के नियमों पर परख असफल होती रही, और समाज में समबन्धित बदलाव आते रहे-जिनमे छुआछूत प्रथा का उद्धार हुआ।सत्य शिक्षा सर्व-व्यापक हुयी क्योंकि कूट-वैज्ञानिक विषयों को विस्थापित करके सत्यापित विषय (तार्किक ज्ञान वाले विषय) शिक्षा-गत गए।
   
    आज जब भाजपा फिर से अपने "हिंदुत्व" के क्षेत्र रक्षण में ज्योतिष और ऐसे कई "अन्धविश्वासी" आचरणों को सर्व-व्यापक और "वैज्ञानिक" प्रमाणित करने का प्रयास कर रही है तब भाजपाइयों का यह आचरण पुन: उस ब्राह्मणवाद की स्मृतियाँ लाता है जिसमे कई सारी जातियों को या तो छुआछूट या फिर सामाजिक/आर्थिक पिछड़ेपन का भुग्तभोगी होना पड़ा था।
  भाजपा के यही सारे आचरण भाजपा के ब्राह्मणवादी पार्टी होने का सूचक देते हैं। सेवा-आरक्षण निति में भी भाजपा की आरम्भि छवि आरक्षण विरोधी होने की ही है क्योंकि इन्होने मंडल आयोग द्वारा प्रशस्त सूची में कुछ विशेष जातियों को आरक्षण लाभ का विरोध किया था। राजनैतिक लाभ के लिए भाजपा ने जन-छवि में स्वयं को आरक्षण विरोधि होना ही प्रक्षेपित किया था।
    गंभीरता में देखें तो भाजपा वास्तव में यत्नशील है उस मध्यकालीन 'हिंदुत्व' को वापस सामाजिक आचरण में लाने के लिए जिसमे ब्राह्मणवाद पनपता था। अन्यथा आप खुद ही सोंचे,क्या अभी भी कोई भी वैज्ञानिक जागरूकता वाला व्यक्ति "खड़मॉस" या फिर ज्योतिष को वैज्ञानिक(scientific) होना स्वीकार करेगा ??
   एक प्रशन साफ़ साफ़ उठता है कि वह कौन से लोग हैं जो की ज्योतिष जैसे विषय के प्रचलन में आने से लाभान्वित होंयगे ?? भई, अतीत में झांके तो इस प्रशन का स्पष्ट उत्तर है "ब्राह्मण "(=ब्राह्मणवादी)।
     तब एक दूसरा प्रश्न भी बनता है। वह यह की "हिंदुत्व" के विषय से भाजपा तथा संघ का क्या क्या अभिप्राय है ? क्या संघ ब्राह्मणवाद व्यवहार के अस्तित्व को स्वीकारता है? क्या संघ यह मानता है की कभी किसी काल में हिन्दू धर्म में छुआछूट और सामाजिक पिछड़ापन की दुर्घटना घटी थी और वह भी ब्राह्मणवाद के चलते?
  तो क्या संघ यह सपष्ट करना चाहेगा की वह किस "हिंदुत्व" की रक्षा करने के लिया वचनबद्ध है ??क्या वह जो की ब्राह्मणवाद युग का हिंदुत्व है??
   भाजपा समर्थकों में आप आज भी कूट-वैज्ञानिक विषयों में भेद न कर सकने की अयोग्यता पायेंगे। अधिकाँश भाजपा समर्थक आसाराम बापू ,बाबा रामपाल और योगी रामदेव जैसे छिछले, कूट-वैज्ञानिक, छलावी लोगों का भी पालन तथा समर्थन करते हैं। रामदेव योग तथा आयुर्वेद के नाम पर ऐसे पदार्थों और विद्याओं का व्यापार करते हैं जिन्हें किसी भी सम्मानित उच्च शोध संस्थान में वैज्ञानिकता के प्राकृतिक नियमों पर खरा नहीं पाया गया है। हाँ, अपने छलावे को बनाने के लिए राम देव , डॉक्टर सुब्रमनियम स्वामी, और इसके जैसे कितनों ही "हिन्दुवादी" समय समय पर सुप्रसिद्ध संस्थाएं जैसे नासा,इत्यादि की उन खोजों के बारे में अपने विचार प्रकाशित करवाते रहेंगे जो की हिंदूवादी मान्यताओँ का वैज्ञानिक होने का आभास देती हैं। यह संभव है की कुछ एक हिन्दू मान्यताओं का स-वैज्ञानिक होना स्वीकृत पाया गया हो, मगर हिंदूवादी प्रचारकों को उद्देश्य सम्पुर्ण आस्था का पुनःजागरण है जिसमे ब्राह्मणवाद पनपता था।
   मुख्य तौर पर कहें तो, संघ में आज भी हिन्दुवाद और ब्राह्मणवाद में कोई अंतर नहीं करा गया है। इससे यही पता चलता है की संघ आज भी ब्राह्मणवादी विचारकों के द्वारा संचालित करा जाता है।
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प्रकृति की विचित्र संरचना और आत्मबोद्ध यह है की वर्तमान काल के कई सारे वैज्ञानिक विषय तथा विचार का आरम्भ भूतकाल के कूट-वैज्ञानिक विचारधाराओं में से हुआ हैं। !!!! उधाहरण के लिए आज के रसायनशास्त्र विषय की उत्पत्ति अतीत के "अल्केमी" में से हुई मानी जाती है जिसमे पुराने समय के लोग कुछ तिलिस्मी "अर्क-ए-गुलगुल" जिसको पीने से बुढ़ापा न आये, या एक सोना बना देने वाले पत्थर (philosopher's stone) की खोज समय व्यतीत किया था।
  इसी प्रकार आज का जीवविज्ञान विषय अतीत के औघड़ों में से आये ज्ञान से उत्पत्तित माना जाता है, जब वह मृत शरीर में दुबारा जीवन डालने के लिए शवों के साथ विचित्र क्रियायें करते थे।
   आज के दर्शन में यह सभी प्राचीन हरकतें "कूट-वैज्ञानिक" तथा मनोरोगी व्यवहार मानी जा सकती है।
  मगर फिर भी इसी एतिहासिक, प्राकृतिक सत्य के चलते सेकुलरिज्म का वास्तविक सिद्धांत आज भी स्वतंत्र नागरिकों कूट-वैज्ञानिक व्यवहारों को स्पष्ट दोषपूर्ण नहीं मानता है,बल्कि स्वयं को इस प्रकार के व्यवहारों से दूरी बनाये रखने में ही यकीन रखता है। आश्चर्य करने वाली दुविधा यह है की यह आज भी संभव है की जो कुछ आज कूट-वैज्ञानिक, अथवा मिथक है , वह कल किसी नयी अन्वेषण का प्रेरक बन जाये।

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