प्रजातंत्र पर समालोचनात्मक चिंतन

आरम्भ में प्रजातंत्र का उत्थान राजशाही और जमीदारी जैसी प्रशासनिक व्यवस्था से मुक्ति दिलाने के लिए हुआ था।
    राजशाही व्यवस्था में सभी मनुष्य को बराबर का स्थान नहीं मिलता था। कुछ लोग उच्च कुलीन, बड़े और अधिक सम्मानित , न्यायालय में विशिष्ट पद-सम्मान के अधिकारी, और वह दूसरे व्यक्तियों पर शासन करने के लिए थे।
   और अधिकाँश लोग निम्म-कुलीन, छोटे, अशिक्षित अथवा आवश्यकता मात्र की शिक्षा और रोज़मर्रा के कामकाज करने के जन्म लिए माने जाते थे।
    प्रजातंत्र का निर्माण शासन व्यवस्था में सभी को समान अधिकार, और न्यायालयों के समक्ष समान स्थान, पद देने के हिसाब से हुआ था।
   मगर इस व्यवस्था की अपनी सीमाएं उन प्राकृतिक कारणों से स्वतः प्रस्तुत होती है जिन कारणों ने पुराने मनुष्यों के समाज में राजशाही व्यवस्था को उत्पन्न किया था।
                 वह प्राकृतिक कारण है की सभी मनुष्य समान योग्यतायों और कार्य दक्षता के होते ही नहीं है। यह तो भगवान् द्वारा स्वयं से निर्मित असमानता है जिसे मनुष्यों के द्वारा बनी कोई भी शासन प्रणाली निवारण कर ही नहीं सकती है। कुछ में नेतृत्व के गुण नैसर्गिक होते है, कुछ में पालन करने की प्रवृत्ति होती है। कुछ लोग मौलिक चिंतन कर सकने में सक्षम अपने जन्म और पालन पोषण के वातावरण की वजह से स्वतः हो जाते है। बाकी लोग चिंतन हीन होते है मगर अन्य दैनिक जीवन कार्यों में प्रवीण होते हैं।
   तो यह अभेद सत्य है की समानता तो प्रकृति की शक्तियों के विरुद्ध का विचार था। यही से प्रजातंत्र की प्रथम सीमा तय हो जाती है। प्रजातंत्र में समानता का अभिप्राय मात्र न्यायायिक और शासन प्रक्रिय में समान हिस्सेदारी से होता है, प्रत्येक रूप से समानता और परपरता से नहीं। प्राकृतिक न्याय में समानता बहुत विर्लय रूप में रची हुई है। किसी पशु के खुर शक्तिशाली हैं ,तो किसी पशु के पैर भागने और उछलने में कुशल हैं। प्राकृतिक न्याय में समानता का यही स्वरुप प्रजातंत्र में भी चलता है।  कुछ लोग अधिक धनवान है, कुछ श्रेष्ठ चिंतन वाले और कुछ बस यूँ ही जनसँख्या में अधिक। ऐसे में सर्वश्रेष्ठ न्याय के लिए सभी को समान भागीदारी दी जाती है। श्रेष्ठ चिंतन जो की जन्संख्या में कम उपलब्ध है ,को दीर्घ जनसँख्या के परस्पर संतुलित करने की प्रेरणा इसी विचार से उत्पन्न हुई है। इसी विचार से प्रजातंत्र में संसद भवनों में दोनो कसौटियों को प्रस्तुत करने के लिए दो सभा गृहों की रचना हुई थी- राज्य सभा और लोक सभा।

    प्रजातंत्र की दूसरी कमजोरी इसमें से निकलती है। क्या होगा जब श्रेष्ठ चिंतनशील विचार को दीर्घ लोकप्रियता का मोहताज़ बना दिया जाए? क्या ऐसा समाज मौलिक विचारों से प्रेरित मार्ग पर विक्सित हो पायेगा? या यह मात्र किसी दूसरे अधिक विक्सित समाज की नक़ल ही कर के रह जायेगा? यानी, जो कुछ किसी दूसरे समाज की नक़ल कर के इस समाज में लोकप्रियता प्राप्त करेगा वही इस स्वदेश के समाज में अपनाया जायेगा और लोग भ्रमित हो कर उस नक़ल करने में प्रथम होने की प्रवृत्ति को ही विकास का मार्ग मान लेंगे !!
   यहाँ इस भ्रमित और भटके हुए प्रजातंत्र में लोकप्रियता, दीर्घ जनसँख्या की पसंद, स्वतः ही श्रेष्ठ विवेक को नष्ट कर देगी। धीरे-धीरे दीर्घ जनसँख्या में प्रचलित निम्न, अपवित्र ,अस्वच्छ आचरण ही सामाजिक व्यवहार हो जायेगा। स्मरण रहे की प्राकृतिक न्याय की शक्तियां स्वयं ही इस परिणाम को प्रेरित करेंगी।
   इससे बचने के लिए किसी भी प्रजातान्त्रिक समाज को मानव संसाधन और उत्थान की प्रक्रियाएं विक्सित करनी ही पड़ेंगी। यह आवश्यक कदम है किसी प्रजातंत्र को संरक्षित करने के लिए, अन्यथा वह प्रजातंत्र स्वयं से ही निम्न-कुलीन मतदाताओं की शक्ति से चलने वाला उच्च कुलीन धनवानों की प्रसाशन व्यवस्था में तब्दील हो जायेगा।
               इसी को भ्रष्ट पूँजीवाद (crony capitalism) पुकारा जाता है।
       तो संक्षेप में समझे तो बात यह है कि प्रजातंत्र से भ्रष्ट पूँजीवाद में की दूरी ज्यादा नहीं होती है। किसी भी प्रजातंत्र को इस प्रकार की शासन व्यवस्था में बदल जाने में समय नहीं लगता। धन की शक्ति से लोकप्रियता और मानदंडो को प्रभावित कर देना, और इस लोकप्रियता से शासन शक्ति प्राप्त कर लेना - यदि सजगता न हो तब प्रजातंत्र में यह एक सरल मार्ग है।

प्रजातंत्र में अयोग्य लोगों को सत्ता में आने के उतने ही अवसर होते हैं जितने की योग्य गुणवान लोगों को धन की उपलब्धता अयोग्यता को भी परवान चढ़ा सकती है। यहाँ प्रजातंत्र मूर्खतंत्र में तब्दील हो जाते हैं। शिक्षा का अर्थ सिर्फ शैक्षिक उपाधियों में सिमट जाता है - यह भूमि पर कोई विशाल प्रभाव नहीं दिखा पाता है। यह प्रजातंत्र की कमज़ोर कड़ी है। उच्च शिक्षा उपाधियाँ किसी कार्यकुशलता का प्रमाण नहीं रह जाती हैं।

      पाखण्ड प्रजातंत्र में जन आचरण पर हावी हो सकता है। जनता को जानकारी के बोझ से ही भ्रमित करा जा सकता है। जानकारी के प्रबंधन में सबसे महतवपूर्ण कार्य होता है समस्त जानकारियों को संगृहीत करना एवं वर्गीकरण, मानचित्र निर्मित करना। इसमें विपरीतबोधक जानकारियों और संपूरक जानकारियों (Contradictory Information and Complementary Information) को स्पष्टता से चिन्हित करके मानचित्र में स्थान देना आवश्यक क्रिया है। इसके बाद की क्रिया है आवश्यकता के अनुसार जानकारी के बिन्दुओं को रख कर निष्कर्ष निकलना ।
प्रजातंत्र में इस विकट कार्य में जनता को भ्रमित कर देना आसान है। यदि किसी देश की शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त न हो तब यह कार्य अधिक आसानी से हो जाता है। जनता अन्यायपूर्ण , अनैतिक आचरण को भी अनुसरण करने लगती है। प्रजातंत्र में यह संभव है। प्रजातंत्र में भ्रम और मिथ्या का भरपूर प्रयोग होता है। यहाँ प्रचार और विज्ञापन से सच को पराजित किया जाना आसन है।

   प्रजातंत्र अभी तक के मनुष्य के प्राकृतिक व्यवहार से विरुद्ध की प्रसाशन व्यवस्था है। इसे चलाने में अधिक उर्जा लगेगी। यहाँ प्रजातंत्र में लोग गुणों को और अधिक निखारने के स्थान पर दुर्गुणों और सदगुणों में समझौता करवाने की चाल भी चल सकते हैं। प्रजातंत्र में उपलब्ध न्यायायिक समानता का दुरूपयोग अनैतिक और न्यायपूर्ण आचरण वाले लोग समय और अवसर खरीदने के लिए भी कर सकते है कि जब तक न्यायालयों में स्थापीय नहीं हो जाता है कि वह अनैतिक अथवा अन्यायपूर्ण हैं तब तक उन्हें भी नैतिक तथा न्यायसंगत ही माना जाये।
   इसी प्रकार, शक्ति के संतुलन के लिए उपलब्ध  संपूरक विचारों का आपसी संतुलन को विशिष्ट भोग अभिरुचि वाले लोग अच्छाई की बुराई से समझौता कराने के लिए दुरूपयोग करवा सकते हैं।
   
        कुल मिला कर यह समझ सकते है कि दूर से आकर्षक दिखने वाली यह प्रशासन व्यवस्था -प्रजातंत्र- इतनी सरल और स्पष्ट नहीं है जितना की हमें आभास देती है। अगर प्रजातंत्र में निरंतर नागरिक समीक्षा व्यवस्था कमज़ोर हो जाए तो प्रजातंत्र अपने घोषित उद्देश्यों के ठीक विपरीत कार्य करने लगता है। सबसे बड़ा खतरा यही है की जब यह व्यवस्था प्रदूषित हो कर विपरीत दिशा में बढने लगती है तब भी इसकी आह किसी को भी समय पर नहीं मिल पाती है जब की सामजिक हानि आरोग्य विहीन पहले ही हो चुकी होती है।

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