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Showing posts from September, 2014

राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ की आलोचना

राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और बाकी हिन्दुत्ववादी संघटनो की सर्वप्रथम ख़राब आदत है पश्चिम में हुए वैज्ञानिक सिद्धांतों और खोजों को नक़ल करके उन्हें प्राचीन वैदिक ज्ञान जताना।   आर्यभट्ट और रामानुजम प्राचीन भारत के अपने समय और युग के अग्रिम गणितज्ञ थे। संघ और हिंदुत्व वादियीं ने इनके नाम पर इनके वास्तविक योगदान से कही अधिक श्रेय दे दिया है। प्य्थोगोरस थ्योरम और यहाँ तक कि कैलकुलस (सूक्षम संख्याओं की गणित, वास्तविक खोज न्यूटन द्वारा) को भी मूल उत्पत्ति भारत की ही बता डाला है।    शून्य की खोज भारत में हुयी मगर संघियों ने इस खोज को ऐसा गुणगान किया की बस मानो बाकी सब खोज का ज्ञान आरम्भ-अंत यही था।    धरती के गोलाकार और सूर्य की परिक्रमा करने की ज्ञानी खोज कॉपरनिकस द्वारा ही हुई थी। मगर संघ के लोगों ने कुछ 'अस्पष्ट सूचकों' को "स्पष्ट प्रमाण" समझ कर इस अधभुत खोज को प्राचीन वैदिक ज्ञान जता रखा है। मेरे व्यक्तिगत दर्शन में भारत की भौगोलिक स्थिति में ही कुछ वह खगोलीय घटनाएं नहीं है जिनसे यहाँ के मानस प्रेरित हो पाते यह विचार करने के लिए की धरती गोलाकार है और सूर्य की परिक्रमा करत

भारत का मंगलयान अभियान और इसकी आलोचना

6मई 1970 को अर्नेस्ट स्टुलिंघेर नाम के नासा के एक सम्बद्ध निदेशक के पद पर आसीन एक अन्तरिक्ष वैज्ञानिक ने ज़ाम्बिया की एक नर्स, सिस्टर मैरी जकुंडा को एक पत्रोत्तर में यह तर्क स्पष्ट किये थे कि क्यों अन्तरिक्ष अन्वेषण मानव विकास और सुधार के लिए एक आवश्यक कार्य होगा , इसके बावजूद भी कि अन्तरिक्ष सम्बंधित अनुसंधान बहोत ही खर्चीले प्रयोग होते हैं, तब जबकि अफ्रीकी महाद्वीप पर मानवता की एक बड़ी आबादी भुखमरी, कुपोषण, गरीबी, बिमारी इत्यादि के सबसे विकराल प्रकार से अभी झूझ ही रही है।     (इस पत्र की प्रतिलिपि इन्टरनेट पर आसानी से खोजी जा सकती है।)         आने वाले समय ने डॉक्टर अर्नेस्ट स्टुलिंघेर के तर्कों को सत्यापित भी कर दिया है। आज कंप्यूटर, इन्टरनेट, दूरसंचार, मौसम, खनिज की खोज, चिकित्सा इत्यादि कितनों ही क्षेत्रों में उपलब्ध उपकरण और ज्ञान हमे अंतरिक्ष अन्वेषण के दौरान बाधाओं को सुलझाने तथा अन्तरिक्षिय प्रयोगशालाओं में हुए प्रयोगों से ही प्राप्त हुए हैं।     कुछ वर्षों पहले जब एक प्रगतिशील देश भारत ने मंगल गृह पर अपने खोजी अभियान की घोषणा करी तब उसे भी इस प्रकार के मेहंगे अभियान पर धन व

आलोचना करना और निंदा करना में भेद

आलोचना करना मनुष्य बुद्धि का आवश्यक स्वरुप है। जहाँ चैतन्य है वहां आलोचना है। और जहाँ श्रद्धा है, वहां केवल स्तुति है।   श्रद्धा जब चैतन्य से विभाजित हो जाती है तब अंधभक्ति बन जाती है। मगर आलोचना और निंदा में अंतर है। आलोचना मात्र विश्लेषण है जिसका परम उद्देश्य गुणवत्त से है, सुधार से है। जहाँ सुधार है, वहां शुद्धता है, वहां सौंदर्य है, पावनता है, निश्चलता है । सौन्दर्य ,निश्चल,पावन, शुद्ध - जहाँ यह सब है वहां पवित्रता है।     और जहाँ पवित्रता है ,वही ईश्वर हैं। बल्कि अंग्रेजी में तो कहावत ही है - Cleanliness is Godliness. आलोचना को निंदा से भिन्न करना आवश्यक है। निंदा शायद अपमान,तिरस्कार के भाव में होती है। यह घमंड और अहंकार से प्रफ्फुलित होती है। इसमें शक्ति का उपभोग है, शक्ति का जन कल्याण के लिए परित्याग नहीं है।   आलोचना एक निश्चित दिशा की और प्रेरित करती है। निंदा दिशा हीन है। आलोचना आदर्शों के अनुरूप होती है। निंदा में स्वयं-भोग ही उद्देश्य है। आदर्श में से सिद्धांतों और अवन्मय को जन्म होता है। बुद्धि और बौद्धिकता का विकास होता है। आत्म भोगी का कोई आदर्श नहीं है। वहां स

भारतीय जागृति की समस्या

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#अंधभक्ति की समस्या है क्या.... ???

गहराई से विचार करें तो #अंधभक्ति की समस्या का मूल अर्थ है वह परिस्थिति जब मनुष्य सत्यापन की विधि में श्रद्दा के मनोभाव का अत्यधिक प्रयोग करता है, शरीर की इन्द्रियों का नहीं। यानि #अंधभक्ति में मनुष्य सत्य उसी को "मानता है" जिसमे उसकी श्रद्धा है,अथवा जो उसकी वर्तमान श्रद्धा मनोभाव से तालमेल रखे,वह नहीं जो कि उसकी इन्द्रियों और तार्किक मस्तिष्क के गुणात्मक प्रयोग से निष्कर्ष निकले तथा वर्तमान श्रद्धा को विचलित करे।   चरवाक् नामक के प्राचीन विचारक ने भारत में नास्तिक विचारधारा की नीव डाली थी। चरवाक् के अनुसार सत्य वह था जो इन्द्रियों द्वारा गृहीत किया गया हो।    इससे पूर्व आर्यों की संस्कृति मूलतः विद्या ज्ञान पर आधारित थी । अगर मानव विकास की प्रक्रिया को अन्थ्रोपोलोगिकल दृष्टिकोण से देखें तो ज्यादा आसन हो जायेगा समझना कि आर्यों ने वनचर्य जीवन शैली से आ रहे क्रमिक विकास मानव को विद्या की ओर क्यों प्रेरित किया होगा और संस्कृति क्यों विद्या पर ही आधारित हुई होगी।    बरहाल, विद्या गृहण करने के उपरान्त एक समस्या अक्सर उत्पन्न होती होगी की सही ज्ञान किसे माना जाये। ऐसा अक्सर होत

गुरुत्व के नियम, इस्साक न्यूटन और भाजपा के अंधभक्त समर्थक

गुरुत्व के नियम, इस्साक न्यूटन और भाजपा के अंधभक्त समर्थक (व्यंग रचना) सोलहवी शताब्दी की बात है। इस्साक न्यूटन नामक एक युवक ने पेड़ से एक सेब को गिरते देख कर कुछ नया सोचा और उन्हें गुरुत्व के सिद्धांत कह कर प्रकाशित करवा दिया।   न्यूटन के सिद्धांत के अनुसार सेब वृक्ष से धरती की ओर इस लिए गिर था क्योंकि एक अदृश्य ताकत 'गुरुत्व' उसे धरती की और खीच रही थी। और ऐसी ही एक ताकत धरती को सेब की और भी खींचती थी।   भारतीय जनता पार्टी के रामदेव तथा मोदी के उपासक भक्तजनों को यह विचार कतई पसंद नहीं आया की कोई अनियंत्रित ताकत वस्तुओं का व्यवहार समान रूप से नियंत्रित करती थी। वह सब भगवान् कृष्ण तथा भगवत गीता में अथाह विश्वास रखते थे और उनका मानना था की सब कुछ इश्वर की इच्छा से नियंत्रित होता है ,तथा ईश्वर मनुष्य के द्वारा कर्मो के अनुसार उसको फल देता है।   अंधभक्तो के इस श्रद्धा के अनुसार वृक्ष से गिरा सेब किसी गुरुत्व-फुरुतव की वजह से नहीं धरती पर आया था, बल्कि यह इश्वर की इच्छा थी। और सेब द्वारा धरती को अपनी ओर खींचने की सोच तो पूरी तरह बकवास ही थी।   तो अंधभक्तों ने न्यूटन का विरोध करन