"भक्तजन" कौन हैं ?

भक्त जन हैं कौन??
यही तो है वह भ्रष्टाचारी जो भ्रम फैला कर खुद को बचा रहे हैं।

स्वच्छ नागरिक को स्पष्ट पता होता है की आदर्श रूप में एक न्याय पूर्ण समाज चलाने के लिए क्या क्या कदम उठाने चाहिए। यह भक्तजन हैं की उन कदमों को विफल करने में लगे हैं , ताने कस कर की "अरविन्द को लगता है कि वही दूध का धुला हैं", " हमे अरविन्द से अपनी ईमानदारी का कोई सर्टिफिकेट नहीं चाहिए" ।
यही सब वचन भक्तजनों की पहचान है।

यदि शंकराचार्य ने इन्हें टोका नहीं होता तो इन्होने "हर हर xxxx" का चुनावी नारा ऐसा बुलंद किया था की महादेव को भी इन्होंने अपने आराध्य xxxx के पीछे कर दिया था।

अब आजकल भक्तजन आप पार्टी के समर्थकों पर अंधभक्त होने का ताना कस रहे हैं।
ऐसे में यह न्याय कैसे होगा की असल अंधभक्त कौन है और कौन नहीं?

इस समस्या का हल है "सिद्धान्तवाद"। जी हाँ,  असल-नक़ल में इस भेद को करने के लिए ही आदर्श सिद्धांतों की उचित समझ इंसान में होना ज़रूरी है। जो बुनियादी सिद्धांतों को (रसायन शास्त्र में पढ़ाई जाने वाली वह परिकाल्पनिक आदर्श गैस जिसका खुद का कोई अस्तित्व प्रकृति में नहीं है, मगर जिसकी व्यवहार की समझ से प्राप्त सिद्धांत - चार्ल्स लॉ, बॉयल लॉ, गैस लॉ - हमे प्रकृति की वास्तविक गैसों का व्यवहार इक तुलनात्मक अधय्यन द्वारा समझने में सहायक होती है) -- जो इन बुनियादी सिद्धांतों को समझ जायेगा -वह असली-नकली में भेद कर लेगा।
  यह भेद न कर सकने वाले लोग ही वास्तविक अंधभक्त "भक्तजन" हैं।
अरविन्द IIT पास है। उन्हें बुनियादी समझ है। इसलिए उन्हें पता है की असली क्या है और नकली क्या।

भक्तजनों के अन्य व्यवहारिक प्रवृतियाँ क्या क्या हैं?
भक्तजन हास्य रस और व्यंग्य कसने में खूब आनंद लेते हैं। यूँही बड़े-बड़े मंच से छोटे मोटे झूठ बोल देने में इन्हें कोई परहेज और बुराई नहीं लगती हैं।
भक्तजन गहरे मंथन से घबराते हैं।
यदि किसी वाद-विवाद में इनके तर्कों की परख करने के लिए उसके नतीजों की कल्पना करें तो यही उत्तर मिलेगा कि भ्रष्टाचार नाम की कोई सांस्कृतिक अथवा प्रशासनिक समस्या है ही नहीं। यह सब काल्पनिक बातें हैं ! इसी को यह भष्टाचार का निदान मानते हैं।
इनके सत्ता रूड होते ही काला धन नाम की कोई विचार रह ही नहीं जाता। इसलिए भ्रष्टाचारियों को कोई सजा, कोई पेनल्टी इत्यादि को यह आपसी राजनैतिक द्वेष का कर्म मानते हैं। अब राबर्ट, गडकरी और येदुरप्पा - यह सब भ्रष्टाचार से मुक्त है - अर्थात भ्रष्टाचार के आरोपों से ।
भक्तजन अब facebook जैसे सार्वजनिक स्थल पर दिखाई नहीं देते हैं। facebook पर यह सिर्फ प्रचार के लिए आते हैं। विचार मंथन के लिए नहीं।
   गहन विचार मंथन यह facebook पर नहीं कर सकते है। वरना इनके अन्दर के असली विचारों की पोल-पट्टी दुनिया के सामने खुल जाएगी। विचारों को सार्वजनिक करने को भी यह लोग washing you dirty Lenin in public मानते हैं।  इसलिए चुनाव उपरान्त यह whatsapp पर सरक चुके हैं।
भक्तजन चुटकुले और memes का खूब आनंद लेते हैं। हल्की, छिछलि बातें इन्हें खूब भाती है क्योकि यही इन्हें आसानी से समझ में आती हैं।
व्यंग के एक प्रकार -समालोचनात्मक चिंतन से परिपूर्ण उपहास- को तज कर यह एक निकृष्ट प्रकार वाले व्यंग- परिहास - में तल्लीन हैं। अपने दल-गत प्रतिद्वंदी का परिहास करने में यह आनंद महसूस करते है। इनका मकसद जगद-कल्याण एवं सुधार नहीं है।

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