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Showing posts from April, 2014

'स्यूडो' विचार संकृति वाला एक देश

"सेक्युलेरिज्म" (यानि राज्य विधान और धार्मिक विधानों को अलग-अलग रखने की परंपरा, जिसका मूल स्रोत है सामाजिक संवाद में ईश्वर और आस्थावानों का सीधा सम्बन्ध, बिना किसी ब्राह्मण , पंडित, पादरी या मुल्लाह के मध्यस्तथा के) -- एकमात्र ऐसा विचार नहीं है जिसे हम भारतियों ने गलत रूप में समझ रखा है। भारत में कई सारे विचारों का 'स्यूडो'('pseudo-') निर्मित हो चुका है। आप प्रजातंत्र के विचार को ही देखिये, या की समाजवाद (समाजवादी होने का दावा करने वाली राजनैतिक पार्टी के खुद के आचरण को समाजवाद की मूल समझ से परखिए), स्वतंत्र-अभिव्यक्ति , आपसी भाईचारा, विश्व बंधुत्व या की राष्ट्रीयता भाव,- इन सभी की जो समझ हम भारतियों में उपलब्ध है वह असल में "स्यूडो" ही हैं। स्यूडो-सेक्युलेरिज्म, स्यूडो-स्वतंत्र अभिव्यक्ति, स्यूडो-संसद, स्यूडो-प्रजातंत्र, स्यूडो-सोशलिस्म, स्यूडो-नेशनल इंटीग्रिटी, स्यूडो-राष्ट्र, स्यूडो-यूनिवर्सल ब्रदर-हुड, इत्यादि   और तो और, अपने धर्म, अपने मजहब, की जो समझ हम में है वह भी "स्यूडो" ही है। स्यूडो-रिलिजन।   "स्यूडो" से मेरा अर

Concepts are 'caught' , they cannot be 'taught' .

Concepts are 'caught' , they cannot be 'taught' . (straight from the books of my pre-school kid)

वाद विवाद और मानवीयता की सांझा समझ का योगदान

इतने दिनों से और इतना प्रचंड वाद-विवाद करने के उपरान्त अब शायद आवश्यकता है की हम एक खोज कर लें की विद्यालयों में साहित्य क्यों पढ़ाया जाना चाहिए | उच्च माध्यमिक स्तर पर एक नाटक , ड्रामा या कविता को पढ़ने का उद्देश्य क्या होता है ? क्या साहित्य की शिक्षा मात्र एक भाषा ज्ञान के उद्देश्य से ही होनी चाहिए ? साहित्य समूह को मानवीयता विषय वर्ग क्यों बुलाया जाता है ?    साहित्य की शिक्षा हमे शायद छोटे-छोटे अंतर और परख सिखाती हैं | जैसे --कब एक त्यागी  एक भगोड़ा बन जाता है , और कब एक दान ही कहलाता है --यह आंकलन प्रत्येक व्यक्ति का अलग अलग होता रहेगा अगर दोनों का मानवीयता के प्रति नजरिया भिन्न हो | भिन्न नजरिया एकमेव निर्णय नहीं दे सकते और एकमत न्याय नहीं कर सकते | न्याय एक नहीं होगा तो समाज में बिखराव बना ही रहेगा | शायद इसके ज़िम्मेदार हमारी शिक्षा नीति और हमारा सामाजिक साहित्य --सिनेमा , कला इत्यादि होंगे की इन्होने हमे एक समान मानवीय मूल्यों की परख नहीं सिखायी|

What is a Polemics?

Polemics : वाद-विवाद करने की एक कला जिसमे की किसी विषय पर एक पक्षिय (एक तरफ़ा) स्थान ले लिया जाता है जो कि असहनशीलता से भरा हो और बहोत सारे लोगों को असुविधा होने की संभावना हो।   कौन सा विचार Polemics कहलाने के लिए उचित होगा और कौन सा नहीं होगा - यह विश्लेषण की वस्तु होती हैं। एक अबोध वक्ता किसी यथा संभावित समाधान को भी Polemics समझ बैठने का भ्रम कर सकता है।   Polemics अधिकांशतः ब्रहमिया अथवा कर्मकांडी धार्मिक विषयों से प्रेरित होते पाए जाते हैं। इसलिए क्योंकि अभी कुछ सदियों पुर्व तक, जिस काल में प्रजातंत्र सरकारें अस्तित्व में नहीं थी तब समाज को कर्मकांडी धार्मिक नियमों द्वारा ही संचालित किया जाता था। यही Polemical नियम 'व्यवस्था' के आधार थे।   Polemics और वाद-विवाद (debates) में अंतर यह होता है की डिबेट्स में किसी चरम प्रावधान को समाधान के तौर पर सुझाया नहीं जा रहा होता है । चरम प्रावधान नैतिकता सम्बंधित विचार-विमर्श प्रकट करते है जबकि किसी डिबेट्स में प्रतिस्पर्धा करते दोनों ही विचार नैतिकता पर एकदम पुख्ता तौर पर खरे तो होते ही हैं। Polemics में उपलब्ध विचार की नैतिकता नए

मोदी जी का ब्याह और उनकी सुबूतों से छेड़खानी की लत

मोदी शादी शुदा हैं या कि नहीं - यह मुद्दा नहीं है। मुद्दा फिर से वही है - सबूतों और बयानों से छेड़ छाड़ की लत जो कि न्याय को प्रभावित कर रही है और सामाजिक सौह्र्दय पर प्रभाव। 1) आप अपनी शादी शुदा जीवन का खुलासा एक संवैधानिक संस्था(निर्वाचन आयोग) के आगे नहीं करते हैं। यह जानकारी आपकी आय, भ्रष्टाचार निवारण, सामाजिक आचरण इत्यादि के लिए महतवपूर्ण तथ्यों का आधार होती है। 2) आप किसी महिला की जासूसी करवाते हैं और पुलिस अधिकारी पूरे खुलासे के लिए न्यायपालिका के समक्ष भी मना कर देता है। 3) आपके राज्य के कितने ही उच्च पदाधिकारी आपसे वैचारिक मतभेद में हैं और आप ने उन्हें प्रताड़ित करने के कीर्तिमान स्थापित किये हुए हैं। संविधान की मंशा के अनुसार शासन शक्ति को राजनेता और प्रशासनिक अधिकारियों के मध्य में संतुलित कर के रखना था। आपने स्पष्ट तौर पर शासन शक्ति अपने पक्ष में कर ली हैं। और आप यह कर्म का तर्क-मरोड़ प्रचार भी करते हैं - "minimum government, good governance" कह कर। आपने व्यवस्था नियंत्रण के सरल उपाए नहीं खोजे हैं , बल्कि वर्तमान प्रणाली में जी परस्पर-नियंत्रण-और -संतुलन (checks and

Registration of birth, proof of name and the proof of parenthood relationship

I think it may require a little bit specialised insight for people to understand how the Law and the Evidencing establishes as a fact that "A" is a father of "B". Imagine the world just before 1980's when the DNA evidencing was not yet found by the Sciences. How , in those times, was the relationship of Father and Son being established in Law and in Courts, through a systemic run of Logic ?? The answer lies in absorption of the mechanism in our Mind that it took a combination of three events to occur , concurrently, to 'prove' (through a Inferential Logic "अनुमान", not a Discreet Logic "प्रत्यक्ष प्रमाण") the relationship between 'A' and 'B'. The three events which needed to occur concurrently were 1) 'A' claiming to be father of 'B'/ or , 'B' claim to be sired by 'A'. 2) 'A' or 'B', as relevant, not proceeding to refute the claim raised in the event 1. 3) There is

तर्क और सिद्धांत के मध्य के सम्बन्ध पर एक विचार

सिद्धांत और तर्क में एक सम्बन्ध होता है। तर्क अपने आप में दिशाहीन हैं। कुछ होने और कुछ न होने - दोनों पर ही तर्क दिए जा सकते हैं। मगर जब तर्कों का संयोग आपस में मिलता है और एक संतुष्ट कहानी कहता है तब एक सिद्धांत की रचना होती है। आरंभिक अवस्था में, यानि उस अवस्था में जब की सिद्धांत की तमान तर्कों पर परीक्षा अभी नहीं हुयी होती है, तब उसे परिकल्पना कहते हैं। अंग्रेजी भाषा में परिकल्पना को एक हाइपोथिसिस (Hypothesis) कहा जाता है। इस अवस्था में कोई भी परिकल्पना किसी मन-गढ़ंत कहानी के समान ही होता है।   किसी परिकल्पना को एक स्थापित सिद्धांत का रूप लेने के लिए एक लम्बी परीक्षा प्रक्रिया से गुज़रना होता है। यह आवश्यक नहीं हैं की सिद्धांत को सभी परीक्षा प्रक्रिया में उतीर्ण होना हो। एक निश्चित , अंतरात्मा को तृप्त कर देने के हद में उत्तीर्ण होने पर वह परिकल्पना को एक सिद्धांत (theory, principle) मान लिया जाता है। यदि कोई सिद्धांत समूचे तर्कों पर खरा हो, यानि सभी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाए तब वह क़ानून /अथवा नियम मान लिया जाता है। नियम हर जगह , हर अवस्था में लागू होगा ही। उधाहरण के लिए गुरुत्व

बहरूपिया तर्कों के प्रवीण योद्धा - भाजपाई

बहरूपिय (DUPLICATE) तैयार कर लेना भाजपाईयों के तर्क शास्त्र की सबसे उत्तम विद्या है।      आप पार्टी ने भ्रष्टाचार और व्यवस्था सम्बंधित जागृति के लिए 'चर्चा समूह' नाम के सामाजिक -राजनैतिक कार्यक्रम को चालू किया। भाजपाईयों ने 'चाय पर चर्चा' शुरू करी।      केजरीवाल पर फोर्ड फाउंडेशन और विदेशी कंपनियों से दान लेने का आरोप लगाया। फोर्ड फाउंडेशन से दान खुद भी लिए थे, और वेदान्त समूह से अवैधानिक दान के लिए सर्वोच्च न्यायालय में खुद पकडे गए हैं।   केजरीवाल को दिल्ली के मुख्य मंत्री पद के त्याग को 'भगोड़ा' करार दिया, अब पता नहीं क्या तर्क दे रहे हैं की मोदी ने अपनी धर्मपत्नी को क्यों छोड़ दिया।(सुना है की तुलसीदास और कुछ संतो का उदाहरण दे कर मोदी के "त्याग" का प्रचार कर रहे हैं। बस मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि भाजपाइयों के "त्याग" के इस मानदंड पर केजरीवाल ही क्यों असफल हैं। और केजरीवाल ने तो मोदी के समतुल्य किसी दूसरी नारी की राज्य संसाधनों के बल पर जासूसी भी नहीं करवाई है।)   भाजपाइयों के इस तर्क विद्या को प्राचीन यूनान में "सोफिस्ट(sophist