Posts

Showing posts from March, 2014

बनारस और वर्तमान भारतीय संस्कृति की अशुद्धियाँ

  बनारस नाम संभवतः वानर अथवा बानर मूल शब्द से आता है , जिस जीव को हम वर्त्तमान में बन्दर कह कर बुलाते हैं। यह शहर बंदरों से भरा हुआ था और उनके शरारतों से गूंजता है , और शायद इसलिए कुछ लोगों ने इस शहर को बनारस नाम दिया था। बन्दर इस शहर के आराध्य देव हनुमान जी का प्रतीक होता है और यहाँ शहर में हनुमान जी का एक प्राचीन संकट मोचन मंदिर स्थापित है। कहते हैं की गोस्वामी तुलसी दास जी ने रामायण का अपना संस्करण इसी मंदिर के प्रांगण में लिखा था जो की हनुमान जी ने उन्हें स्वयं सुनाया था ।(हिन्दू मान्यताओं में हनुमान जी एक अमर देव हैं)। हनुमान जी को भगवान् शंकर का ही एक रूप माना जाता है, और आगे भगवान् शंकर और काशी (बनारस का वैदिक काल का नाम) का रिश्ता तो सभी को पता होगा।   (बनारस से आये देश के बहोत बड़े संगीत शास्त्री, स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब का मानना था की बनारस नाम पान के रस से उत्पन्न हुआ है , क्योंकि यहाँ का पान बहोत प्रसिद्द है |)     मौजूदा बनारस को मैं स्वयं एक पागल युवक के माध्यम से समझने की कोशिश करता हूँ जिसने चंडीगड़ शहर में सन 1995 में घटी एक लड़की रुचिका गिल्होत्रा की आत्म

Is the entire corporate world behind the BJP's PM Nominee as the way it is made to appear ?

 Logic dictates that there has to be some kind of a lobby-division among the corporate houses too. In India, the way crony capitalism has delivered itself, there are least of odds that all the corporates were gainers from it while only the common man stood to lose, that too a non-PERSONALISED fund as the "national ex chequer."    The forces of nature balance themselves out so achieve a stability. Therefore if the losses from corrupt disbursement of India's natural resources were so "impersonalisd" as in the form of " a loss to the national ex chequer" alone, perhaps the corruption wouldn't have been a corruption at all , rather it would have become a solemn national policy. If this government policy is perceived as corruption, it ought to create a disbalance among the corporates too, who, therefore, should the be the first to join the brigade in crying out "foul".    Some corporate houses have time and again put up their product advert

सिद्धांतवाद -- एक बेतुकी राजनीति का अंत

   यह सिद्धान्तवाद का ही कमाल है है की जनता में यह स्पष्ट हो पा रहा है कि समाचार मीडिया भी पैसे के बल पर मरोड़ा हुआ चल रहा है। सिद्धान्तवाद आदर्शवाद में से ही प्रवाहित होता है मगर फिर भी आदर्शवाद से थोडा जुदा सा है।    सिद्धान्तवाद को बस यूँ समझिये कि माध्यमिक स्कूलों में रसायनशास्त्र विषय में पढ़ाये जाने वाले "गैस के नियम" के सामान है। विभिन्न गैस कैसे आचरण करती हैं, यह अगर हम परस्परता में अध्ययन करते तो कभी भी किसी भी गैस को समझ नहीं पाते। अगर ऑक्सीजन की तुलना करके नाइट्रोजन और नाइट्रोजन से मुकाबला कर के हाइड्रोजन को समझते तब तो आजतक इंसानों की समझ में कुछ भी बढ़त नहीं हो पाती।    तो इस समस्या का समाधान किया गया एक काल्पनिक गैस, "आदर्श गैस", को अपनी बुद्धि में ही, कल्पना में जन्म दे कर। एक बार जब हमने आदर्श गैस के आचरण को समझ लिए तब हमने कुछ सिद्धांतों का अविष्कार कर लिया। जैसे की "चार्ल्स लॉ" , " बॉयलस लॉ", और एक परिपोषित "गैस लॉ"।    फिर इन सिद्धांत के प्रयोग से ही हमने अपने आस-पास के वास्तविक जीवन में विद्यमान सभी गैसों और मिश्रणों

भाजपा के जाली विज्ञापन

"अमेरिका मोदी से डरता है क्योंकि मोदी भ्रष्ट नहीं हैं।"--भाजपा द्वारा एक प्रचारित विकीलीक्स के नाम-अंतर्गत एक जाली विज्ञापन     बीते कुछ वर्षों में जिन-जिन देशों में जन-क्रांति हुई है वहां के तानाशाहों ने उसे "सीआईए (CIA)" का , "पश्चिमी देशों की साज़िश" , और यहाँ भारत में "फोर्ड फाउंडेशन (Ford Foundation) की साज़िश" करार दिया गया है।    जन-क्रांतियाँ चले आ रहे तंत्र को पलट देने का उद्देश्य पूर्ण करती हैं। स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भाजपा और आप पार्टी के मध्य कौन सी पार्टी जन क्रांति से उभरी है? और कौन इस स्थापित तंत्र में बदलाव को रोकना चाहता है? किस पर फोर्ड फाउंडेशन से चन्द लेने का आरोप मथा जा रहा है (तब जब कि फोर्ड फाउंडेशन ने चंदे तो उनको राज्य की गैरसरकारी संस्थाओं को भी दिए हैं) और कौन स्वयं को "भ्रष्ट नहीं किये जा सकते हैं" कि दलील जनता में बेचना चाहता है।    "अब उल्लू मत बनाओ क्योंकि उल्लू बनना कोई अच्छी बात तो नहीं हैं।"- टीवी पर आने वाले एक विज्ञापन में दिया गया जन सन्देश।    वर्तमान में भारत और अमेरिका के व्यग्तिगत

अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम और भविष्य में भारत के लिए कड़ा रास्ता

   क्या यह भारत की विदेशनीति का आश्चर्यचकित करने वाला विरोधाभासी व्यवहार नहीं है कि हम रूस द्वारा यूक्रेन के क्राईमीया क्षेत्र पर अतिक्रमण कर लिए जाने पर पश्चिमी देशों द्वारा लगाए जा रहे रूस पर प्रतिबंधो में उनका साथ नहीं दे रहे हैं?    क्या 21वी शताब्दी में आज भी कोई देश किसी दूसरे देश के क्षेत्र पर ऐसे अतिक्रमण कर सकता है? और क्या भारत ऐसे अतिक्रमण को जायज़ मानता है? तब यदि हमारे किसी भूभाग पर कोई यदि ऐसे अतिक्रमण करे तब क्या समूचे विश्व को हमे हमारे ही द्वारा उत्पन्न तर्कों में उत्तर देने का मौका नहीं मिलेगा?    शायद दुनिया वापस शीत युद्ध के दौरान वाले राजदूतिया समीकरणों पर लौटने लगी है। यह एक अशुभ समाचार होगा।    सुब्रमनियम स्वामी द्वारा लगाए गए कांग्रेस अध्यक्षा पर आरोप भी याद आते हैं। क्या रूस ने भारत से रिश्ते इतना गहरे "खरीद" रखे हैं।    क्या भारत फिर से कम्युनिस्ट ब्लोक से सम्बद्ध हो जायेगा जिसे कभी किसी समय श्री अटल वाजपायी जी की सरकार ने मुक्त कराया था? क्या हम फिर से एक "समाजवादी प्रजातंत्र" बनेंगे जिसका प्राकृतिक अस्तित्व उतना ही सत्यापित है जितना कि

यूक्रेन और क्रेमीया प्रकरण पर एक विचार

   पश्चिमी देशों ने हाल मे घटी कई सारी जन-क्रांतियों में सराहनीय धैैर्य प्रदर्शित करा है। जहाँ-जहाँ (मिस्र, लीबिया, सीरिया ) भी यह क्रांति घटी थी वहां के इतिहासिक पटल पर एक तथ्य एकरूपी (common) था। वह यह कि वहां का शासक वहां लम्बे अरसे से शासन कर रहा था । जनता का असंतुष्ट होना एक विश्व व्यापी सत्य है - मगर यदि बदलाव को स्थान नहीं मिले तब यह असंतुष्टि एक क्रांति बन जाती है। फिर भले ही वहां की सरकारें इसे एक विद्रोह या एक विदेशी खुफिया साज़िश करार देती रहे।     यही हुआ। सीरिया में असाड के शासन ने उत्पन्न क्रांति को असाड ने पश्चिमी देशों की साज़िश ही करार दिया है। फिर इस विद्रोह को दबाने के लिए उसने देश की सैन्य क्षमता को देश की जनता के विर्रुध ही झोंक दिया है। दो तीन माह पहले एक अत्यंत मार्मिक, मानवाधिकारों का उलंघन करते हुए, एक बहोत निर्मम रासायनिक हतियारों का हमला अपनी ही जनता के विर्रुध कर दिया । और आरोप यह लगाया कि यह पश्चिमी देशों द्वारा समर्थित विद्रोहियों ने किया था। शायद यह बेहतर होता की एतिहासिक सत्य को देखते हुए असाड खुद त्यागपत्र दे देते। मगर उनका चुनाव था कि विद्रोहियों को दब

हास्य और सिद्धांतवाद

      सिद्धान्तवाद में हास्य के लिए स्थान नहीं होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि कई बार सिद्धांतों को स्वयं भी तानों और जग हँसाई के बाच से ही गुज़र कर आना होता है। हास्य एक दिशाविहीन विचार प्रविष्ट कराते हैं और कभी-कभी तो यह सिद्धांतो के विपरीत को सत्य दिखलाने की त्रुटी कर देते हैं।       हास्य के दो प्रकार - ताना कशी ( एक प्रकार का नकारात्मक व्यंग्य) और उपहास (किसी की क्षमताओं पर लगे प्राकृतिक अंकुश के कारणों से एक नकारात्मक, निकृष्ट आनद लेना) - हास्य कहने वाले के, और हास्य के पात्र- दोनों पर ही शब्दों का दबाव बनाते हैं।      इतिहास में पलट कर देखें तो पता चलता है की फूहड़ हास्य ने कहाँ-कहाँ सिद्धांतों के साथ क्या त्रासदियाँ करी हुई हैं। जीवविज्ञानी डार्विन को ही लीजिये। जब डार्विन ने 'क्रमिक विकास' का सिद्धांत दिया था तब तत्कालीन ब्रिटेन के समाचारपत्रों ने डार्विन के बन्दर की शक्ल वाले व्यंग्य चित्र प्रकाशित कर के उन पर ताने कसे थे, कुछ ने डार्विन के पूर्वजों को बन्दर की शक्ल का दिखाया था, और कुछ ने डार्विन को इश्वर के स्थान पर बंदरों की पूजा करने वाला। सिद्धांत कितना सिद्ध      निक

सिद्धांतवाद और आदर्शवाद की राजनीति की वापसी

    सिद्धांतवाद और आदर्श वाद की राजनीति में उन विचारों को त्यागना ही पड़ता है जो स्थापित सिद्धांतों से मेल नहीं रक् सकते हैं। अर्थात जन लोकपाल विधेयक चाहने वालों और नहीं चाहने वालों को एक साथ रख कर नहीं चला जा सकता है।      मगर लगता है की मौकापरस्ती की राजनीती करने वाली मौजूदा सभी राजनीति पार्टियां सिद्धान्तवाद के आरंभिक अध्याय को भी भुला चुकी हैं। और उनहोंने यह तो मन ही मन यूं ही मान लिया है की भारत की जनता सदियों की गुलामी के बाद अंतरात्मा विहीन हो चली है इसलिए उनमें यह काबलियत ही नहीं बची है की सिद्धान्तवाद और आदर्शवाद को वापस स्मरण कर सकें।      देखिये न कैसे कैसे आरोप लगा रहे हैं विपक्षी दल केजरीवाल पर। " केजरीवाल सभी को साथ ले कर नहीं चल सकता है। उसकी राजनीति इस देश में नहीं चलने वाली है।" । और फिर अंत मेंन स्वयं की अंतरात्मा की ध्वनि होने का सूचक देते हुए यह भी कह देते हैं कि "जनता जाग चुकी है। इसे अब और बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता है"। "सब को साथ लेकर नहीं चल सकते " ...यह अन्त्योष्टि किसके सन्दर्भ में प्रयोग करते है? "सब को साथ नहीं ले रहे"

आत्मनिष्ठ प्रश्नों के हल --- मत-विभाजन से कहीं महतवपूर्ण है मत-संयोजन

   कभी न कभी ,कहीं किसी पल हमे, हम सभी इंसानों को एक समाज का निर्माण करने के उद्देश्य से इस प्रकार के प्रश्नों पर भी एक राय, एकरुपी विचार रखना पड़ेगा की, "वह जो लाल रंग है वह कितना लाल है ?"।           आत्मनिष्ठ विषय(subjective issues) उन्हें कहा जाता है जिनको हम निष्पक्षता से माप नहीं सकते हैं। एक उदाहरण के लिए इस प्रशन के उत्तर के विषय में मंथन कर के देखिये, " राम अपनी माता से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से कितना अधिक प्रेम करते थे?" ( क्या प्रेम को नाप सकने वाले यंत्र भी बने हैं ?!!!) यह एक आत्मनिष्ठ प्रशन है जिसको की सर्वश्रेष्ट तर्कसंगत व्यक्ति भी उत्तर्रित नहीं कर सकते हैं। जहाँ तक आज के, आधुनिक विज्ञान का सवाल है अभी तक तो इंसानों ने इस प्रशन के निष्पक्ष(objective) उत्तर दे सकने के संसाधन विक्सित नहीं किये हैं।         मगर दुविधा तो देखिये - एक समाज का निर्माण करने के लिए हमे ऐसे ही प्रशनों का एकरूपी उत्तर दूंढ कर ही आगे का रास्ता मिलता हैं। ऐसे उत्तर जो समान रूप से सर्वस्वीकार्य हों। हम इन प्रशनों को अनउत्तरित कर के एक समाज का निर्माण कभी नहीं कर सकते हैं। इस प्