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Showing posts from January, 2013

कॉफी हाउस का सामाजिक महत्त्व

कोफ्फी हाउस (विकिपीडिया में दिए कुछ लेखों से प्रेरित ) :      कॉफी हाउस के चलन का सामाजिक महत्त्व बहोत गहरा है । इतिहास में झाँक कर देखें तब यह ज्ञात होगा की कैसे कॉफ़ी हाउस की दुकाने एक सामुदायिक स्थल के रूप में उभरी, नए विचारों को प्रसारित किया और एक सामाजिक दिशा में मोड़ दे दिया । भारत में कोफ़ी हाउस के समतुल्य 'नुक्कड़ वाली चाय की दूकान' ने भी कुछ ऐसी ही भूमिका निभाई है । चाय की दूकान भारत के यूरोपीय कोफ़ी हाउस के समान हैं ।           सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप में कोफ़ी को व्यवसायिक तौर पर पेश करने का चलन तुर्की में हुआ था । मगर कॉफ़ी हाउस जैसी दुकानों का सामाजिक उत्थान ब्रिटेन के ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज जैसे विश्वविद्यालयों के आस पास में खुलने से हुआ । वहां यह छोटी-छोटी दुकानें छात्रों के लिए एक सामाजिक होने और वाद-विवाद, शास्त्रार्थ करने की भूमि के रूप में विकसित हुए। यहाँ तक की कुछ विश्वविख्यात व्यापारों का असल जन्म स्थल एक कॉफ़ी हाउस ही है । सबसे बड़ा और उम्दा नाम बिमा की सर्वप्रथम कम्पनी 'ल्लोय्ड' का है जिसके अभिवाक को बिमा जैसे व्यापार का विचार एक कॉफ़ी हा

Tolerance and subjugation cannot be confused in

सहनशीलता दास-मानसिकता से थोड़ी सा भिन्न गुण है । सिर्फ वीर व्यक्ति ही सहन करते है वह भी तब जब वह अपनी ताकत के पूर्ण प्रवाह में होते है। अपने से कम ताकत वालो के भिन्न विचार , प्रथाएं , जीवन शैली, वह सब जो न्याय-संगत है, भले ही अपने स्वयं के विचारों से मेल न रखे -- यह सहन करे जाते हैं । और जो अपराध, सितम या अन्याय झेलते हैं वह सहनशील नहीं होते, बल्कि दास होते हैं ।     यह आम बोल चाल की भाषा की चपलता ही है की अपराध और अन्याय झेल चुके दास मानसिकता के यह पुरुष स्वयं के दास मानसिकता के अपमान को छिपाने के लिए स्वयम को सहनशील बतलाते है ।    और फिर इस तर्क-विकृत बुद्दि को स्वयं की बौद्धिकता समझते हैं ! The virtue of Tolerance is distincted from subjugation by bigots (reference Wikipedia "Tolerance") that tolerance is an allowance of *different opinion* which may be stemming from religious beliefs , race, nationalities, practises etc. When people stop protesting crimes, abuses, tyranny, it is a prodigy of English Language that those subdued people call it as Tolerance perhaps to s

why do people have problem making an admission of their mistake ?

why do people have problem making an admission of their mistake ?  Admission, confessions are the beginning point from where corrective actions begin. But there is a politics and honor issues hovering the acts of admission. That of being short-changed. It is not because the mistaken concept was fervently fought for at the time people viewed it as the correct choice, but because others who are disagreeing were insulted and laughed at when they are protesting the erstwhile correct choice, - that the issue of dishonour arises. It is not a worldwide phenomenon. Japanese are one people known for very quietly and filled with guilt and remorse admitting their mistakes. Toyota and many japanese manufacturers have often taken almost suicidal decisions of recalling all of their products from the market when a fault was discovered. The train tickets are refunded when train is delayed for more than 3 minutes.            Infact, in our place there is politics behind the trick of admission too. In

उपमा के प्रयोग से समालोचनात्मक चिंतन का नाश

उपमा के प्रयोग से कई प्रकार के विवरण  दिए  जाते है । किसी एक वस्तु को किसी अन्य वस्तु के समान दर्शा कर उस प्रथम वस्तु का विवरण देना व्याकरण में उपमा कहलाता है । हिंदी शब्दकोष से 'उपमा' की विवरणी प्राप्त होती है -- उपमा अलंकर --  जिस जगह दो वस्तुओं में अन्तर रहते हुए भी आकृति एवं गुण की समानता दिखाई जाए उसे उपमा अलंकार कहा जाता है। उदाहरण --> सागर-सा गंभीर ह्रदय हो, गिरी- सा ऊँचा हो जिसका मन।  --- इसमें सागर तथा गिरी उपमान, मन और ह्रदय उपमेय सा वाचक, गंभीर एवं ऊँचा साधारण धर्म है। ( http://www.hindikunj.com/2009/08/blog-post_29.html#.UO0U-uRJN34 )  विज्ञान में उपमा के प्रयोग से न-देखी , न-छुई जा सकने वाली वस्तु के व्यवहार , प्राकृत को समझा व समझाया जाता है । विद्युत् और जल की उपमा एक बहोत आम उदहारण है । विद्युत् को न ही छुआ जा सकता है , न ही आसानी से देखा जा सकता है क्योंकि यह  प्रकाश  की गति  से  त्वरित होती है। ऐसे में पहले के शोधकर्ताओं ने स्वयम भी विद्युत् के व्यवहार को समझने के लिए आस-पास की प्रकृति में से एक ऐसी वस्तु को चुना जो की समक्ष व्यवहार में विद्यु

निमय का अर्थ

किसी ने हमसे पूछा की आपके पुत्र का क्या नाम है ।  हमने बता दिया, "निमए "।  उसने पुछा की इसका अर्थ क्या होता है ? हमने बताया की निमए भगवन चैतन्य महाप्रभु को बुलाया जाता है ।  वह व्यक्ति संतुष्ट हो गया । क्योंकि कोई अन्य प्रश्न नहीं किया उसने ।  बाद में हम सोचने लगे की क्या हमारा उत्तर समालोचनात्मक चिंतन की दृष्टि से उचित था । क्या किसी शब्द का अर्थ किसी व्यक्ति का नाम होता है ? "           "मैं" का एक भाव अर्थ होता है अहम् । वैसे "मैं" एक सर्वनाम है जिसके माध्यम से स्वयं से सम्बंधित विषय का वर्णन किया जाता है । मगर दर्शन और मनोविज्ञान में इसे अहम् का भी प्रतीक मानते है । जो लोग "मैं" का अत्यअधिक प्रयोग करते हैं वह मुखतः स्वयं में केन्द्रित होते है और अपनी संतुष्टि में सुख अनुभूति लेते हैं ।       निमय का एक संभावित अर्थ हैं (मेरे समझ में)- वह जिसने यह "मैं" को त्याग दिया हो , अर्थात जो जागृत हो, जो चैतन्य हो, जो अपने आस पास की घटनाओ से भी सुख और दुःख को अनुभुतित कर सके , सिर्फ स्वयं तक न केन्द्रित हो । निमए का अर्थ 'जा

भावनाओं का आहात होना की न्यायायिक स्थिति पर एक विचार

किसी की भावनाओ को चोटिल होना आजकल न्यायालयों में अभियोग चलाने के लिए एक वाजिफ वजह समझा जाने लगा है । वैसे मानवीय भावनाओ का सम्मान होना एक बहोत ही महत्वपूर्ण विचार है, और इसका कारण यह है की चुकी यह भावना 'मानवीय' है, यह जनसँख्या के सबसे अधिकांश हिस्से में समान रूप से पाई जाएगी । तो 'मानवीय भावना का सम्मान नहीं होना' तो एक जायज़ वजह समझ में आती है क्योंकि कल को आपके साथ भी उसी मानवीय भावना को नकारे जाने का वाक्य हो सकता है ।     मगर तब क्या जब किसी एक व्यक्ति या किसी एक वर्ग की भावना किसी दूसरे से चोटिल होती है ?     सबसे प्रथम निष्कर्ष तो यह ही निकलता है की ऐसी परिथिति में जब किसी एक व्यक्ति अथवा वर्ग की भावना किसी अन्य से चोटिल होती है तब यह भावना "मानवीय" तो नहीं कही जा सकती , क्योंकि यह *सभी* मानवो की भावना नहीं है । यह किसी एक ख़ास वर्ग विशेष की भावना है ।     ऐसे में प्रशन यह बन जाता है की क्या किसी एक की भावनाओं का आहत होना क्या कोई जायज़ वजह समझा जा सकता है किसी अन्य की स्वतंत्रताओं पर पाबंदी लगाने के लिए ?     उदाहरण के लिए , यदि व्यक्ति "अ&qu