'मंगलयान' अभियान का प्रेरणा उद्देश्य क्या होना चाहिए ?

   हिंदी भाषा के एक समाचार चेनल IBN-7 पर एक उच्च पदस्त अंतरिक्ष वैज्ञानिक को भारत के मंगलयान मिशन(अभियान) के प्रेरणा-उद्देश्य का व्याख्यान करते सुना की क्यों भेजा हैं भारत ने यह मिशन | उनकी बातों और विचारों को सुन के मुझ में फिर से वहीँ ग्लानी , वही शमंदिगी महसूस हुई जो बार-बार  , कितनो ही बार मैंने स्वयं के एक भारतीय होने की वजहों से महसूस करी हुयी है | वही बेईज्ज़ती और शर्मंदिगी, जिसमे की मेरे मन में वह संदेह होता हैं की क्या यही वह भारतीय सभ्यता थी जिसने समूचे विश्व को सभ्यता का पाठ अपने काव्य रचना, रामायण, के माध्यम से दिया था , और क्या यही वह सभ्यता है जिसने घर्म और न्याय के महाग्रंथ , श्रीमद भगवद गीता, की रचना करी थी |
  अंतरिक्ष वैज्ञानिक जी का कहना था की मगल यान मिशन का प्रेरणा-उद्देश्य है इस दुनिया में भारत का नाम ऊँचा करने का -- यह साबित करने का की भारत के पास भी काबलियत है ऐसे उच्च तकनिकी मिशन को सफलता पूर्वक पूर्ण कर सकने की , और भारत का अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में लोहा मनवाने की | भारत ने यह मिशन मात्र रुपये 450 करोड़ में ही भेजा है , जब की रूस, अमरीका , यूरोपीय संघ और अन्य देशों ने इस पर हज़ारों करोड़ डॉलर का खर्च कर के प्राप्त करा है | मिशन का दूसरा उद्देश्य है मंगल गृह पर जीवन की खोज करना , जिसके लिए वह मंगल के वातावरण में मीथेन नामक गैस की तलाश करेंगे |
  साधारण , ग्रामीणय और अपठित भारतीयों को इन विचारों में और उप्पर्युक्त व्याख्यान में कहीं कुछ गलत न लगे| मगर जो भी भारत और उसकी सभ्यता, उसकी दैनिक घटनाओं का अध्ययन कर रहे शोधकर्ता होंगे उनके लिए यह विचार फिर से वही सूचक और प्रमाण का कार्य सिद्ध करते है जिसमे भारत को एक लघु-विचारक , अल्प-बौद्धिकता का 'समूह' (जिसे की आधुनिक भारत-वासी अपने अल्प-ज्ञान भ्रम में एक 'राष्ट्र' कह कर संबोधित करते है ) समझा जाता है |
    क्या एक इतना दीर्घ-गामी, उच्च तकनिकी, ज्ञान और शोध के नए द्वार खोलने वाला अभियान मात्र एक "स्वाभिमान" के लिए ही भेजा जाता है ?
इस उप्परलिखित प्रशन के उत्तर की तलाश में मुझे एक बार फिर से स्वयं को निर्मोह की धारा में प्रवेश कराना पडा जहाँ सिर्फ सत्य और न्याय ही इंसान को पैर जामये रख सकने के साधन होते हैं | और यही एकमात्र साधन क्यों न हो-- ज्ञान-और-शोध का तो सत्य-और-न्याय के साथ कुछ ऐसा ही सम्बन्ध है जिसके चलते ही तो पौराणिक वैदिक सभ्यता ने भी विद्या, यानि ज्ञान, को सभ्यता का स्रोत बताया था और सत्य और न्याय को सर्वोच्च बौधिक गुण चुन कर ऐसा स्थान दिया जिसमे सत्य को किसी भी भगवन शिव में मनुष्य की श्रद्धा और  विश्वास , और किसी भी प्रकार की सुन्दरता (शारीरिक अथवा कलात्मक) से , --दोनों से ही अग्रिम रखा | इसी मन्त्र को आधुनिक भारत ने अपने राज चिन्ह पर उतरा है "सत्यम , शिवम् , सुन्दरम " के रूप में |
  पश्चिम के देशों ने शुरू से ही भारत के इस मंगल अभियान की आलोचना करी थी, और यह कहा था ही भारत एक गरीब और विविध समस्यों से घिरा देश है , जो की यह उच्च तकनिकी अभियान किसी खोज, शोध, ज्ञान और सत्य की तलाश में नहीं कर रहा है ,बल्कि फिर से वही पूरनी , अणिभ (किसी तरल के समान), मिथ्या पूर्ण ,असत्य-मान वस्तु "स्वाभिमान" के लिए कर रहा है |
  आज भी भारतीय सभ्यता कोई भी विशिष्ट वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली सभ्यता नहीं है| यहाँ रोजाना तमाम अजीबोगरीब , मानवता विहीन अंधविश्वास के काण्ड होते हैं और यहाँ के समाचार पत्रों में पढ़े जाते है | यह देश एक धर्मांध 'राष्ट्र' है जो की अपने फिल्मी और क्रिकेट सितारों को भगवान् मानता है , इस कदर की यहाँ के सामाजिक हास्य ,मजाकों , में तो एक-दो सितारों को "तहेदिल " से साक्षात भगवान् ही मान लिया जाता है | गरीबी और अमीरी की सीमाओं ने भारत के अन्दर दो अलग-अलग सभ्यताओं को जन्म दे दिया है जिसने इस देश में विभाजन की एक दरार डाल रखी है | इस दरार के दोनों तरफ की जीवन शैली, विज्ञानं के प्रति नजरिया , मुद्रा  और धन, राष्ट्रवाद तथा अन्य बौद्धिक विचार , शिक्षा , कला और साहित्य की अभिरुचि , रोज़गार, स्वतंत्रता और जीवन के उद्देश्य की पूर्ती - इत्यादि के प्रति भिन्न , बल्कि पूरी तरह विपरीत नजरिये हैं| यह देश एक 'राष्ट्र' के रूप में अस्तित्व बनाए रखने के लिए तमाम समझोते , तमाम मिथ्य-आडम्बर का सहारा लेता है | इसकी आजादी से लेकर आज तक चले आ रहे इसके राष्ट्रीय विवाद, राष्ट्रिय समस्याएं इसकी सभ्यता के  केंद्रीय गुण, पाखण्ड, पर रोज़ प्रकाश डालती है | यहाँ आज भी समाचार चेनल रोज़ सुबह मनुष्य का राशिफल बताते हैं | जैसे की राशी फल का ज्ञान भी एक 'समाचार' ही हो |  पश्चिमी देशों का यह मानना है कि ऐसे में  भारत के मंगल गृह अभियान का प्रेरणा उद्देश्य कोई उच्च विचारक , ज्ञान शील , प्रगति शील नहीं हो सकता | बल्कि भय इस बात का है की कहीं यह देश अपने भ्रमित विज्ञानं की प्रगति में स्वयं को और अधिक समस्या ग्रस्त न कर ले | यह राष्ट्र ज्ञान को , ज्ञान के अन्दर विदमान सत्य को अपनी सुविधा, अपने समझौतों के अनुसार ही उच्चारित करता हैं, - सत्य को नष्ट कर के उसमे पाखण्ड को प्रवेश करा देता है |
  मंगल गृह का अभियान कई अन्य राष्ट्र भी कर सकते थे | चीन, कोरिया , फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया इत्यादि की तकनिकी उपलब्धिया भारत से आगे ही होंगे , पीछे कदाचित भी नहीं | मगर उन्होंने अभी तक इस प्रकार के अभियान के बारे में कोई कदम नहीं उठाया | हाँ चीन और जापान का एक मंगल गृह का प्रयास पहले ही असफल हो चूका है | तब क्या हमारा "लोहा मनवाने " के विचार हमारे अन्दर की किसी मनोवैज्ञानिक दर्भ का सूचक तो नहीं है | किसी प्रकार का मानसिक कुष्ट| हमने क्यों यह अभियान प्रक्षेपित किया होगा, जबकि इन देशो ने नहीं  | शायद अंतरिक्ष की खोज से कहीं अधिक हमे अपने अन्दर कुछ तलाशने की आवश्यकताएं हैं |
   मंगल गृह पर चल रहे अमरीकी अभियान , क्यूरोसिटी, का  मैं व्यतिगत तौर पर भी बहोत प्रशंसक हूँ | वहां की खोजों और गतिविधियों का मैं रोजाना अनुगमन करता हूँ | बल्कि मैं स्वयं किसी षड्यंत्रकारी विचारक के भांति यह अटकले भी लगा चूका हूँ की मंगल गृह पर जीवन विद्यमान है , जिसकी वजह से ही शायद नासा ने आर्थिक मंदी के इस दौर में भी मंगल में अपनी रूचि बनाये रखते हुए , सोजौर्नेर , स्पिरिट और औपरच्युनीटी अभियानों के बाद फिर से यह क्यूरोसिटी अभियान भेजा है | मैं स्वयं को आज भी अपने इस षड्यंत्रकारी कथन पर कायम रखता हूँ |
  मंगल पर हो रही मीथेन गैस की शोध , और मीथेन गैस के माध्यम से जीवन की संभावित अस्तित्व की थेओरियों को मैं बखूबी जनता और समझता हूँ | सिलिकॉन से बने प्राक्कल्पनात्मक जीव-रूप की थ्योरी से भी मैं बखूबी वास्ता रख चूका हूँ की कैसे शोधकर्ताओं ने कार्बोन जीवक-गुण के बहार आ कर सिलिकॉन जीवक-गुण वाले जीवन की भी मंगल पर तलाश का संसाधन क्यूरोसिटी-रोवर पर सुसज्जित किया है | मंगल की भूमि के ऊपर, नीचे और वायुमंडल में कहाँ-कहाँ जीवन की संभावनाएं हैं और शोध चल रही है , मैं रोज़ के रोज़ यह खबरे पढता हूँ |
मंगल के ऊपर प्राचीन जलधारा , वहां के प्राचीन वायुमंडल, जो की अब रहस्यमई कारणों से गायब हो चूका है , इत्यादि की खोजों की रोज़ की खबर रखता हूँ |
  और इन सब के उपरान्त, भारत का ज्ञान के प्रति एक पिछड़ा नजरिया, प्रेरणा-उद्देश्य को पूर्ण सत्यता से स्थापित नहीं कर पाना मेरे लिए एक दुखद घटना है | मुझे लगा की इस अनंत के ज्ञान की तलाश में , अंतरिक्ष की शोध में, हम भारतीय  शायद यह हमारी सभ्यता में विद्यमान पाखण्ड को त्याग देंगे जब हमे सत्य से रूबरू होना पड़ेगा , जब अनंत की यह तलाश हमे अपने अंतःकरण में , हमारे भीतर की तलाश में ले जाएगी की हम वहां अंतरिक्ष में क्या करने जा रहे हैं, जब की शायद वहां कुछ हो ही न | मगर हमारे पाखण्ड ने हमे फिर से एक दर्भ और घमंड से भरे प्रेरणा-उद्देश्य से हमे पूरित कर दिया है |
  अंतरिक्ष की शोधों से भारत का एक प्राचीन रिश्ता रहा है | आर्यभट, से भास्कराचार्य , और फिर सी.वी रमण, चन्द्रशेकर , और जे सी बोसे इत्यादि वैज्ञानिकों ने बहोत सारी विशिष्ट ब्रह्माण्डीय खोजें करी हुयी है | मगर इन सबके बावजूद एक औसतन भारतीय किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का व्यक्ति नहीं है | कर्मकांडी धर्म की एक विचारधारा आज भी, लगातार, पश्चिम की नास्तिकता , धर्मनिरपेक्षता और प्राकृतिक विज्ञानं से प्राप्त करी गयी उप्लाभियों को भारतीय जन-मानस में तर्क-भ्रमित करके पौराणिक भारतीय विज्ञानं की उपलब्धि के सत्यापन के रूप में प्रस्तुत करता है | मंगल गृह तक के अभियान की इस उपलब्धि को कुछ हिंदी भाषी समाचार चेनल अभी भी मानव ज्ञान के अनछुए प्रखर के रूप में नहीं, बल्कि वही पुरानी ज़मीन की प्रति मानवीय हवस के रूप में प्रस्तुत कर रहे है की कैसे हम भारतीय मंगल पर से प्राप्त संसाधनों का प्रयोग कर सकेंगे, कैसे हम वहां भी एक दिन ज़मीन की खरीद-फरोक्त का कारोबार फैला सकेंगे |
  इधर अन्तराष्ट्रीय स्तर के अंतरिक्ष विज्ञानियों की चिंताए यह बढ़ रही है की जीवन को समझने और तलाशने के इस प्रखर पर कहीं मानव सभ्यता एक अत्यंत विनाशकारी कदम ही न उठा ले -- जीव-संक्रमण की त्रुटी न कर ले | जहाँ अभी हम मनुष्यों को जीवन की और अंतरिक्ष की गहराइयों का तनिक भी बौध नहीं है , स्टीफन हव्किंग्स जैसे चिंतकों के लिए एक भय का विचार यह है की मनुष्य अपने इन अभियानों के द्वारा जाने-अनजाने में कोई अजीब सा जीव-संक्रमण न प्रसारित कर बैठे | मंगल गृह से धरती पर हुए संक्रमण , और धरती गृह से हुए मंगल पर संक्रमण -- दोनों ही मनुष्य और विज्ञानं के लिए विनाशकारी साबित हो सकते हैं |
    पश्चिम देशों में विज्ञानं परिकल्पनाओं की फिल्मों ने इस प्रकार के तमाम संभावित दृष्टय को वहां के जन-जागृती में प्रस्तुत किया हुआ है | और कुछ फिल्मो ने इन देशों के स्वयं के अंतरिक्षिय अभियानों को एक अधिक संतुलित प्रेरणा-उद्देश्य देने का लक्ष्य भी प्राप्त किया है | भारत का फ़िल्म उद्योग और जन-जागृती अभी इस दिशा में बहुत पीछे हैं | यहाँ विज्ञानं की वास्तविक उपलब्धियां यहाँ के लेखकों और कहानीकारों को प्रेरित नहीं कर पाई है | विज्ञान और कला का विलक्षण संगम अभी भारत में प्राप्त नहीं हो सका है | विज्ञानं परिकल्पना के नाम पर भारत में अभी भी मिथकों को प्रसारित किया जाता है , जो की पूर्णतः उपद्रवी , परिकल्पनाओं के मापदंड से बाहर का एक  असत्य (outrageous) होता  है | यह आकास्मक हुए सत्य का पद्दर्पर्ण ही समझें की अभी कुछ दिन पहले ही 'कृष-३" नाम की एक हिंदी फ़िल्म दर्शकों के बीच में आई है | सोचने का विषय यह है की हम भारतीय लोग "Krish 3"  को एक वैज्ञानिक-परिकल्पना (Science Fiction) की कहानी समझते हैं, या फिर की मात्र एक साहित्यिक स्वतंत्रता (Literary fantasy) से उपजी कल्पना ?
   स्वाभिमान और एक मनोचिकित्सीय दर्भ के बीच में क्या भेद होता है ? कब हमे किसी कर्म को एक स्वाभिमान का कृत्य समझना चाहिए, और कब एक दर्भ से भरा कृत्य ? एक साधारण विचार में इसका एक उत्तर तो यह बनता है की स्वाभिमान का कृत्य आक्रामक नहीं होता , बल्कि आत्म-रक्षा के प्रसंग में होता है , जबकि मनोचिकिसीय दर्भ आक्रामक होता है , और बिना उकसाए स्वयं ही एक मानसिक या शारीरिक हिंसा कर ने के बाद अपने शिकार पर ही हिंसक होने का आरोप मथ देता है | इस समझ से देखें तब फिर से हम अपने इस मंगल अभियान को मात्र एक "स्वाभिमान " का विषय मान कर एक उचित प्रेरणा उद्देश्य स्थापित नहीं कर सकते हैं |
      फिर इस प्रखर के अभियान को मुद्रा-गुण से देख कर कम कीमत वाला प्रयास कहना भी कोई श्रेय की बात नहीं है | इतने अग्रिम वाले वैज्ञानिक अभियानों में तो असल में जितनी भी कीमत लग सकती है , लगानी चाहिए | प्रखर के वैज्ञानिक अभियान समूचे मानव जाती के लिए एक चुनौती का विषय होते हैं, उनको मानव मस्तिष्क से ही उपजे एक पदार्थ- मुद्रा , और अर्थशास्त्र का बंधक बना लेना कोई बुद्धिमानी नहीं होती | तब फिर इस अभियान का सस्ता होना कोई श्रेय का विचार नहीं, मूर्खता का चिन्हक है की सस्ता-सुविस्ता ही करना था तब फिर पहले आर्थिक समस्याओं और मानसिक बन्धनों से स्वयं को मुक्त करो | बंधक मस्तिष्क खोजी सफलता कम प्राप्त करते हैं |
    अंतरिक्ष के अभियानों के विषय में एक पुराना तर्क यह रहा है की मानव जाती कोई भी खोजी अभियान अपनी समस्याओं के हल की तलाश में करती है , न की अपनी समस्याओं को और अधिक क्षेत्रफल में प्रसारित करने के लिए |  ऐसे में यह आवश्यक रहेगा की हम भारतीय अपनी गरीबी, दरिद्रता, पिछड़ेपन, और अन्धकार-मई विचारों से उपजी समस्याओं को भारतीय सीमा क्षेत्र में ही सुलझा ले, उन्हें अंतरिक्ष और मंगल गृह तक न ले कर जाएँ |

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