"अगर हालात में सुधार नहीं कर सकते तब उन्हें मेकप से ढक कर धोका दे लो"

      जन-उन्माद जितना भी जोर डाल ले , न्याय की परख से किसी व्यक्ति को महज़ बलात्कार अपराध से मृत्युदंड देना बिलकुल भी उचित नहीं होगा । यह उतर एक नहीं कई बार, न्याय के उच्च विद्वानों से भी मिला है । अगर बलात्कार अपराध के न्याय के लिए पहले ही नियमो, कानूनों को स्त्री के हक में झुकाया जा चुका हो, तब तो मृत्युदंड बिलकुल भी न्याय-संगत नहीं बनता है ।
    ऐसे में राजनैतिक पार्टियाँ जन-उन्माद से साथ खड़ी हो कर सिर्फ वोट कमाने की कोशिश कर रही है । यह भारतियों की विशाल और विस्तृत जन-चेतना में बुद्धि-हीनता होगी की हम न्याय की इस विषम परिस्थिति में वह नहीं मांग कर रहे हैं जो इस दुविधा का शायद सबसे उचित निवारण है ।
          जीवन-स्तर में सुधार -- यही वह वाक्य है जिसकी मुश्किलों को भापने के बाद कोई भी राजनैतिक पार्टी इसकी मांग करने को तैयार नहीं है , क्योंकि कल अगर वह सत्ता में आ भी गयी तो उसको खुद पे शक है की क्या वह जीवन स्तर में सुधार कर पायेगी । सेंसेक्स के चमक से India Shining और India rising का नारा तो कईयों ने दे लिया , मगर इस जीवन-स्तर में सुधार के लिए कौन से पार्टी चैलेंज ले गी ? दामिनी का केस हो , या यह गुडिया का , या फिर गड्डे में गिरे बच्चे का , सभी जगह पर तंत्रीय सुधार वाला मध्यम-मार्ग हल जो की न्याय में सबसे सटीक बैठता है , किसी ने भी नहीं माँगा , न ही देने का वायदा किया ।
              रोजाना घटने वाले दुर्घटनाओं और अपराधो की और देखे तब उनके हल में एक ही जवाब आता है -- उचित शिक्षा , उचित जन सुविधाएं , सड़क और रेल परिवहन , जनता के रोज़गार सम्बंधित कौशल का विकास, इत्यादि । मगर सरकार दर सरकार सभी यहाँ पर असफल होते रहे है । ऐसे में असफलता को छिपाने के लिए इन सरकारों ने advertising और publicity का प्रयोग कर सिर्फ उन्ही क्षेत्र को जनता में भ्रम-प्रचार किया है जिससे यह आभास मिले की मनो इस सरकार, इस राजनैतिक पार्टी ने देश में जीवन-सुधार कर दिया हो ।
            यानि , अगर हालात में सुधार नहीं कर सकते तब उन्हें मेकप से ढक कर धोका दे लो ।

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