ज़मीर-बिन वकील और निति-निर्माण करने वाले राजनेता

एक बेहद भ्रमकारी और बहस वाले तर्क का प्रयोग करते हुए राजनीति में बैठे शैक्षिक योग्यता और पेशे से वकीलों ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था को प्रजातांत्रिक तरीके से मात दे दी है/ अब 'लाभ के पद' पर ही विवेचन करिए / यह सिद्धांत इस लिए बनाया गया होगा की राजनीतज्ञों को शासन से मिली निति-निर्माण की शक्ति का प्रयोग स्वः हित में न हो / अब यानी राजनीतिज्ञों को राजनीति में आने से पूर्व अपने सभी व्यवसायिक संबंधो को कम से कम दस्तावेजों पर तोह विच्छेद कर हे देने चाहिए / मगर राजनीति कर रहे वकीलों की चपलता देखिये / आज ज़्यादातर राजनितज्ञ व्यवसायी है , और यही नहीं, वह उन कमेटियों में भी शामिल है जो उन विषयों पर निति-निर्माण करती है जो विषय उनके व्यवसाय से सीधा सम्बन्ध रखते हैं / और प्रश्न करे जाने पर राजनीतिज्ञ -वकील अपना आम आदमी का मौलिक अधिकार का वास्ता दे कर कहते है की "भई, मैं एक जन-प्रचलित सम्मानित राजनीतिज्ञ हूँ, एक व्यवसायी हूँ, और मेरे व्यवसाय के द्वारा कितने लोगों की नौकरी मिल रही है, कितनी के घर का चूलाह जल रहा है/ इसमें गलत क्या है / मेरा व्यवसाय ही तो मेरे समाज-सेवा का माध्यम है /" 
   इसी प्रकार का तर्क व्यतिगत , एकान्तता के परित्याग को मात देते हुए ऐसे दिया जाता है , कि, "भई , में भी एक इंसान हूँ/ मुझे भी एकान्तता का मौलिक है , जब यह हक़ सभी मनुष्यों को प्राप्त है / " ऐसा लगता है कि एकान्तता कि स्वेछित परित्याग कि आवश्यकता है ही नहीं , जब कि मुख्य न्यायधीशों और चुनाव आयोग को दिया जाने वाले घोषणा पत्र ऐसे किसी शासन व्यवस्था के सत्य से ही उबरा है कि एक स्व-घोषणा तो करनी ही पड़ेगी / 
   जनता को भ्रमित करने में वकील अव्वल दर्जे के पेशेवर लोग होते है / आज वकील लोग अपनी स्वयं कि नैसर्गिक सही-गलत के निर्णय कि शक्ति कि इतना भ्रमित कर चुके है कि अब वह न्याय वस्था में भी तर्क-कुतर्क कर के प्रजातंत्र को बड़े ही प्रजातान्त्रिक तरीके से पराजित कने लगे हैं / और जब यह वकील राजनीतिज्ञ बन कर निति-निर्माण कि कमान भी संभाल ले तो बंटा धार तो समझिये ही / 
    ज़मीर या आत्म की बिना योग्यता और पेशे से बना वकील समाज के लिए बहोत उलझी पहेली के सामान है / यह तर्क-कुतर्क में एक उछ श्रेणी का छलिया है / प्रजातंत्र में सभी के विचारों का सम्मान होना चाहिए / ऐसे में न्याय को यह ज़मीर-बिन  वकील एक कटपुतली की भांति नचाते हैं / न्याय को पहले तो बहुमत की इच्छा दिखाया जाता है / और फिर मूल समझ को पराजित कर के कुतर्क शुरू हो जाता है / न्यायधीश भी तो इसी सामाजिक व्यवस्था का नागरिक है / और प्रतिपक्ष का वकील भी / बाकी क्या रह गया / 
 सरकारी लोकपाल का उद्दहरण लीजिये / इसमें भ्रष्टाचार करने वाले से अधिक सजा खुलासा करने वाले को देने का प्रबंध है , इस तर्क पर की गलत 'खुलासे " से सरकारी-सेवक को कार्य में बाँधा पहुचेगी / मनो, लोकपाल बनाने का उद्देश्य भ्रस्टाचार मिटाना नहीं, भ्रस्टाचार की शिकायत करने वालों की हटाना है / अब चुकी , प्रजातंत्र में सभी वर्गों की शिकायतों को सुना जाता है, एक वर्ग उन सरकारी अफसरों का भी तो होगा ही जो भ्रस्ताचार के 'झूठे आरोपों" से त्रस्त होंगे / है, कि नहीं? 
बल्कि प्रजातंत्र व्यवस्था का एक सत्य यह भी है कि किसी न्याय को मात देने के उतने ही घुमावदार तर्क है , जितने कि न्याय को प्राप्त करने के / उदाहरण में येही लीजिये कि एक वन और पर्यावरण  मंत्रालय भी तो है / यानी अगर लोकपाल व्यवस्था को मात देनी है तो यह भी तर्क रख सकतें है कि कागज़ चुकी पेड़ो से बंता है, इसलिए पर्यावरण कि रक्षा हेतु किसी भी नागरिक को जीवन में सिर्फ एक बार ही भ्रस्टाचार कि शिकायत करने कि छूट दी जाएगी / या फिर, एक जज जीवन में सिर्फ एक ही भ्रस्टाचार के मुकद्दमे कि सुनवाई करेगा /  
  मगर विज्ञान में इस तरह के घटनाक्रमों पर बहोत समझ विक्सित हो चुकी है / ज़मीर -बिन वकीलों को विज्ञानियों में यह भ्रम करवाना आसन नहीं होगा / 
 उपर्युक्त विचारों में मेरे कहना का मतलब यह कतई न था कि राजनीति में "लाभ के पद " में व्यवसायी की भाँती वकीलों के आगमन पर भी प्रतिबन्ध होना चाहिए / :-p

Comments

  1. A very impressive article. Well prepared. Very motivating!! Set off on to way

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